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रह गए / अज्ञेय

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सब अपनी-अपनी
कह गये :
हम
रह गये।

ज़बान है
पर कहाँ है बोल
जो तह को पा सके?
आवाज़ है

पर कहाँ है बल
जो सही जगह पहुँचा सके?
दिल है
पर कहाँ है जिगरा
जो सच की मार खा सके?

यों सब जो आये
कुछ न कुछ
कह गये :
हम अचकचाये रह गये।

नयी दिल्ली, अगस्त, 1969