मन्दिर में मैं ने एक बिलौटा देखा :
चपल थीं उस की आँखें
और विस्मय-भरी
उस की चितवन;
और उस का रोमिल स्पर्श
न्यौतता था
सिहरते अनजान खेलों के लिए
जिस का आश्वासन था उस के
लोचीले बिजली-भरे तन में!
बाहर यह एक अजनबी नारी है :
आँखों में स्तम्भित, निषेधता अँधेरा,
बदन पर एक दूरी का ठंडा ओष!
भद्रे, तुम ने मेरा बिलौटा
कहाँ छिपा दिया?
अक्टूबर, 1969