Last modified on 9 अगस्त 2012, at 17:07

बलि पुरुष / अज्ञेय

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:07, 9 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=पहले मैं सन्नाटा ब...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ख़ून के धब्बों से
अँतराते हुए
पैरों के सम, निधड़क छापे।
भीड़ की आँखों में बरसती घृणा के
पार जाते हुए
उस के प्राण क्यों नहीं काँपे?
सभी पहचानते थे कि वह
निरीह है, अकेला है, अन्तर्मुखी है :
पर क्या जानते थे कि वह बलि मनोनीत है
इस ज्ञान में वह कितना सुखी है?