वहाँ दूर शहर में
बड़ी भारी सरकार है
कल की समृद्धि की योजना का
फैला कारोबार है,
और यहाँ
इस पर्वती गाँव में
छोटी-से-छोटी चीज़ की भी दरकार है,
आज की भूख-बेबसी की
बेमुरव्वत मार है।
कल के लिए हमें
नाज का वायदा है-
आज ठेकेदार को
हमारे पेड़ काट ले जाने दो;
कल हाकिम
भेड़ों के आयात की
योजना सुनाने आवेंगे-
आज बच्चों को
भूखा ही सो जाने दो।
जहाँ तक तक दीठ जाती है
फैली हैं नंगी तलैटियाँ-
एक-एक कर सूख गये हैं
नाले, नीले और सोते।
कुछ भूख, कुछ अज्ञान, कुछ लोभ में
अपनी सम्पदा हम रहे हैं खोते।
ज़िन्दगी में जो रहा नहीं
याद उस की
बिसूरते लोक-गीतों में
कहाँ तक रहेंगे सँजोते!
बिनसर, सितम्बर, 1972