नन्दा देवी-8 / अज्ञेय

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यह भी तो एक सुख है
(अपने ढंग का क्रियाशील)
कि चुप निहारा करूँ
तुम्हें धीरे-धीरे खुलते!
तुम्हारी भुजा को बादलों के उबटन से
तुम्हारे बदन को हिम-नवनीत से
तुम्हारे विशद वक्ष को
धूप की धाराओं से धुलते!
यह भी तो एक योग है
कि मैं चुपचाप सब कुछ भोगता हूँ
पाता हूँ सुखों को,
निसर्ग के अगोचर प्रसादों को,
गहरे आनन्दों को
अपनाता हूँ;
पर सब कुछ को बाँहों में
समेटने के प्रयास में
स्वयं दे दिया जाता हूँ!

सितम्बर, 1972

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