सीधी जाती डगर थी
क्यों एकाएक दो में बँट गयी?
एक ओर पियराते पाकड़,
धूप, दूर गाँव की झलक,
खगों की सीटियाँ
बाँसुरी में न जाने किस सपनों की
दुनिया की ललक
दूसरी ओर बाँज की काई-लदी
बाँहों की घनी छाँह,
एक गीला ठिठुरता अँधेरा, दूर
चिहुँकता कहीं काँकड़,
प्रश्न उछालता लंगूर।
जहाँ भी दोराहा आता है
मैं दोनों पर चलता हूँ।
सभी जानते हैं कि यों
मैं चरम वरण को टालता
और अपने को छलता हूँ।
पर कोई यह तो बताये
कि क्या कवि
वही नहीं है जिसे पता है
कि मैं ही वह वनानल हूँ
जिस में मैं ही
अनुपल जलता हूँ!
ऐसा होगा तो
कि फिर मिल जाएँगी दोनों राहें।
कवि नहीं वरेगा,
कवि को घेर लेंगी
वरण की बाँहें।
पर कौन कहेगा कि कवि
तब भी कवि रहेगा।
-जब साधक के भीतर
प्रपात की धार-सा
एक ही गुंजार करता
अद्वैत बहेगा?
सितम्बर, 1972