Last modified on 9 अगस्त 2012, at 17:29

नन्दा देवी-15 / अज्ञेय

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:29, 9 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=पहले मैं सन्नाटा ब...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

 रात में
मेरे भीतर सागर उमड़ा
और बोला : तुम कौन हो? तुम क्यों समझते हो
कि तुम हो?
देखो, मैं हूँ, मैं हूँ,
केवल मैं हूँ...
मैं खो गया सागर उमड़ता रहा
उस की उमड़न में दबा
मैं सो गया
सोता रहा
और सागर
होता रहा, होता रहा, होता रहा...
भोर में जब पहली किरण ने नन्दा का भाल छुआ,
तो नन्दा ने कहा : यह देखो, मैं हूँ :
मैं हूँ तो तुम्हारा माथा
कभी भी नीचा क्यों होगा?
तब किरण ने मुझे भी छुआ :
मैं हुआ।

बिनसर, नवम्बर, 1972