Last modified on 9 अगस्त 2012, at 17:31

विदा का क्षण / अज्ञेय

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:31, 9 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=पहले मैं सन्नाटा ब...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

 नहीं! विदा का क्षण
समझ में नहीं आता।
कहने के लिए बोल नहीं मिलते।
और बोल नहीं हैं तो
कैसे कहूँ कि सोच कुछ सकता हूँ?
केवल एक अन्धी काली घुमड़न
जो बरस कर सरसा सकती है
सब डुबा सकती है
या जो बहिया बन कर सब समेटती हुई
पीछे एक मरु-बंजर भर
छोड़ जा सकती है।
नहीं, विदा का क्षण
समझ में नहीं आता, नहीं आता।

1975