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वीणा / अज्ञेय

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 पहले उस ने कहा देखो-देखो आकाश वह प्रकाश का सागर अछोर
और मैं ने देखा तिरते पंछी फैलाये डैने मानो नावें
पसारे पाल जातीं दूर अजाने किनारे की ओर
फिर उस ने कहा देखो-देखो वह विस्तार
हरियाली का और मैं ने देखा धूप में चमकते
पत्ते और गहरी छायाएँ असंख्य पतंगों-झींगुरों की झनकार
और मर्मर और गुंजार से सिहरी और छिपते
सरसराते सोते और अटकते झरते सुदूर प्रपात
फिर उस ने कहा देखो-देखो पर देखो तो सही ज़रा
ये ठट्ठ के ठट्ठ लोग और मैं ने उन्हें देखा
मानो बहिया उमड़ती आ रही और उन की आँखों में ठहरा
दुःख और भूख और लालसा और घृणा और करुणा और व्यथा अनकही
पर फिर एकाएक उस का तना फुसफुसाता स्वर
और घना हो कर बोला पर क्या
तुम ने भीतर भी देखा अन्धकार में टटोला और मेरा
जी डोल गया एक झुरझुरी मुझे कँपाती रही और मैं डूब गया
पर तब फिर उस ने कहा मगर वह तो है वह सागर प्रकाश का
और वह फैला अछोर और एक विस्तार हरियाली का
और वह बिछा था चारों ओर और लोग और
लोग थे ठट्ठ के ठट्ठ लेते हिलोर
और उन के बीच उन से घिरा मैं विभोर उन के बीच उन के बीच...

1975