दिन छिपे
मलिना गये थे रूप
उन को चाँदनी नहला गयी।
थक गयी थी याद संकुल लोक में
उमड़ती धुन्ध फिर सहला गयी।
बोझ से दब घुट रही थी भावना, पर
प्रकृति यों बहला गयी।
फिर, सलोने, माँग तेरी
कसमसाती चेतना पर
छा गयी।
दिन छिपे
मलिना गये थे रूप
उन को चाँदनी नहला गयी।
थक गयी थी याद संकुल लोक में
उमड़ती धुन्ध फिर सहला गयी।
बोझ से दब घुट रही थी भावना, पर
प्रकृति यों बहला गयी।
फिर, सलोने, माँग तेरी
कसमसाती चेतना पर
छा गयी।