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आर्फ़ेउस / अज्ञेय

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                (1)

तुम्हें कौन ले गया? तुम ही चली गयीं
और नहीं रहीं? पर तुम रहीं
तुम कहीं हो। तुम्हें कोई ले भी नहीं गया।
तुम केवल ओट हो। और उस ओट को
भेद सकता है मेरा गीत। किस बाध्यता से
मैं गाता हूँ! गाता हूँ! गाता हूँ!
गीत में नहीं है मुक्ति
न मुक्ति से उपजा है गान न व्यथा से।
मुझे गाना है क्यों कि मुझे प्राण फूँकने हैं।
क्यों है यह बाध्यता कि तुम्हें जीना है
और इस लिए मुझे गाना है?
क्या मुझे नहीं जीना है?
पर यही मेरा जीना है कि मेरा गाना
तुम में प्राण फूँकता है
और तुम्हें उबार लाता है वहाँ से
जहाँ तुम चली गयीं :
तुम्हें कौन ले गया?

               (2)

मैं पीछे मुड़ कर देखूँगा और तुम्हारे प्राण
चुक जाएँगे। मेरा गायन (और मेरा जीवन)
इस में है कि तुम हो, पर तुम्हारे प्राण
इस में हैं कि मैं गाता रहूँ और बढ़ता जाऊँ
और मुड़ कर न देखूँ। कि यह विश्वास
मेरा बना रहे कि तुम पीछे पीछे आ रही हो
कि मेरा गीत तुम्हें मृत्यु के पाश से मुक्त करता हुआ
प्रकाश में ला रहा है।
प्रकाश! तुम में नहीं है प्रकाश
प्रकाश! मुझ में भी नहीं है
प्रकाश गीत में है। पर नहीं
प्रकाश गीत में भी नहीं है; वह इस विश्वास में है
कि गीत से प्राण मिलते हैं। कि गीत
प्राण फूँकता है। कि गीत है तो प्राणवत्ता है
और वह है जो प्राणवान् है।
क्यों कि सब कुछ तो उसका है जो प्राणवान् है
वह नहीं है तो क्या है?

              (3)

यहाँ पर तुम गाओ। तुम
क्यों कि आसन्न है मेरी मृत्यु
क्या मुझे भी कोई बुला लाएगा वहाँ से
अपने गीत के बल पर
जहाँ से लौटना नहीं होता?
गीत ही वहाँ से लौटा कर लाता है
गीत जो प्राण फूँकता है।
पर क्या गीत प्राण फूँकता है या यह विश्वास
कि गीत से फूँके गये प्राण के बल पर
तुम आ रही हो सतत अनुगामिनी?
गीत ही वह विश्वास देता है।
विश्वास! विश्वास! विश्वास!
गीत में श्रद्धा, या श्रद्धा में गीत?
मुड़ कर मत देखो उसे पाना है, उसे लाना है
तो उसे देखो मत!
अदृश्य, अदृष्ट ही वह आएगी
गाओ कि गीत से वह प्राण पाएगी
गीत ही है वह डोर जो उसे बाँधे है तुमसे
बुनते चलो तार!

               (4)

गा गया वह गीत खिल गया
वसन्त नीलिम, शुभ्र, वासन्ती।
वह कौन?
पाना मुझे है! मेरी तड़प है आग
जिसमें वह ढली!
मेरी साँस के बल
चली वह आ रही है।
नहीं, मुड़ कर नहीं देखूँगा।
क्योंकर खिले होते फूल
(नीलिम, शुभ्र, वासन्ती)
यदि मैं ही न गाता
और सुर की डोर से ही बँधी
पीछे वह न आती?

              (5)

पशु, पंछी, तितलियाँ
सुरों के जुगनूँ उनके बीच
चली आती वह अभी अवगुंठित। मौन। अकेली।
रँभाएँगे पशु। चहकेंगी चिड़ियाँ।
प्रकाश में वह जागेगी। आएगी। लौट।
गा! गा! गा!
गान सहारा है कितने प्राणों का!

               (6)

तुम भी मरोगे आर्फ़ेउस, तुम भी मरोगे।
पत्थर हो जाओगे।
केवल संगीत बचेगा बच सकता है।
तुम नहीं रहोगे
तो कौन पीछे मुड़ कर देखेगा
(या नहीं देखेगा) और श्रद्धापूर्वक आगे बढ़ जाएगा
तुम्हें अनुगामी मान कर?
संगीत। केवल संगीत
वही बचा रहेगा।
कोई अनुगामी नहीं।
कोई पीछे मुड़ कर देखने वाला भी नहीं।
वह संगीत क्या तुम्हारा है?
वह संगीत क्या मेरे भीतर गूँजा है?

              (7)

पर क्या जो अनुगामी है-होगा-वह भी
वह संगीत नहीं है?
और क्या है जो तुम्हारे पीछे आएगा-
तुम्हारे इशारे से बँधा?
तुम मुड़ कर देखोगे
और वह पत्थर हो जाएगा-
संगीत। पत्थर संगीत।
तुम रुक नहीं सकते, मुड़ कर देख नहीं सकते
क्यों कि पत्थर हो जाएगा संगीत।
वह नहीं है जो पीछे आएगी-
है केवल संगीत वह नहीं है
जो उसे पीछे खींच ला रहा है
है केवल संगीत संगीत को पीछे खींच कर ला रहा है
संगीत वही एक अमरत्व है।
मरोगे, आर्फ़ेउस, डरोगे नहीं!

              (8)

वृक-शावक था पला हुआ
वह चला गया अब रो कर
क्या होगा, पुरुरवा?
जाने वाले जाते हैं।
वह गीत कौन-सा था जो
वृक-शावक को ले आया था
माँ के स्तन से खींच?
उर्वशी को कल्पद्रुम की छाँहों से?
वही स्वर जब साधता है

तब सध जाता है।
वही लाता है
अवश उर्वशी को
स्वर-वलित वशी बाँहों में।
चुका गीत :
सुन पड़ी उधर
वन-जननी के स्तन की पुकार
उर्वशी लौट गयी।
गीत! गीत! वह गीत!
आद्य धरा-सा
वन-जननी-सा दुर्निवार!

              (9)

जानना कि हम भूल रहे हैं
कि वह प्रिय मुखड़ा
धीरे-धीरे धुँधला पड़ता जाता है-
यही तो उसका पीछे छूट जाना है
यही तो मुड़ कर देखना है।
और मुड़ कर देखना नहीं है तो
कौन जानता है कि वह
साथ आती है?
क्या मेरा गान
मुझको ही भुलाने को नहीं है?
गाता जा और जा! जा!

               (10)

मरूँ! मरूँ! मरूँ!
संगीत जिये
वह जागे शुभ्र-केशिनी
आलोक-लोक में आये!

               (11)

जिस डोर से खिंची चली तुम आती हो
वह क्या मेरे संगीत की है
या तुम्हारे भीतर की
किसी न चुकने वाली गूँज की?
किसका गीत किसे बाँधे है
किसकी प्रतीति किसे खींचती है
जीवन देती है?
संगीत प्रकाश का एक घेरा
जो बाँधता है
जो मुक्त करता है-
एक अभिमन्त्रित परिमंडल!
क्या मैं उसे केवल आहूत कर सकता हूँ
उसमें प्रवेश नहीं कर सकता?
क्या तुम उसे केवल ढो सकती हो
उसके बाहर नहीं आ सकती?
बाहर! जहाँ फूल हैं। तितलियाँ हैं।
पीली। चमकीली।
डोलती हवाएँ हैं। नाचती प्रकाश-किरणें।
लहरें। स्मृति। मुक्तिप्रदा स्मृति।
और यह प्रभामंडल
जिसमें संगीत गूँजा है
और स्मृति केवल एक कारागार!
कौन तुम्हें खींच कर ला रहा है, प्रिया मेरी,
तुम्हारी स्मृति या मेरी विस्मृति-
कहाँ से उपजती है यह तड़पन
जो मेरा संगीत है?
मेरा संगीत?

               (12)

पत्थर! पत्थर! पत्थर!
प्रस्तर-प्रतिमाओं के उद्यान!
कितने हैं जो पीछे छूट गये
कितने रहे होंगे
जिन्होंने संगीत रचा था!
क्या कोई रहा होगा
जिसने मुड़ कर नहीं देखा
जिससे पीछे नहीं छूटी
कोई आलोक-प्रतिमा पत्थर हो कर?
जो ले गया प्रीति
और पीछे छोड़ गया एक प्रतीति
एक संगीत?
कोई रहा होगा तो चला गया।
पर यह जो हमें मिलता है संगीत
या प्रतीति है-या सन्देह?
प्रस्तर-प्रतिमाओं के उद्यान!
पत्थर! पत्थर! पत्थर!

               (13)

जो पत्थर हो जाएगा
वह मारा जाएगा
पर जो पत्थर नहीं होगा
जो साथ लाएगा
उस संगीत-मढ़ी, आलोक-खची प्रतिमा को
वह भी मारा जाएगा!
कौन सह सकता है इतना आलोक
इतनी प्रतीति इतनी प्रीति!

               (14)

मैं यही गाऊँ। गाता रहूँ।
तुम वहीं आओ। आती रहो।
धूप की थिगलियाँ। तितलियाँ। वसन्त।
एक पाले का परदा। शिलित अन्धकार।
अँधेरा संगीत। संगीत में आलोक की तड़पन। प्रतीति।
उधर पग-पग टटोलता
काँपता प्रकाश। ललक। प्रीति।
ऐसा ही होता आया है।
ऐसा ही है।

                (15)

स्मृति
अनुस्मृति संगीत
स्मृति ही संगीत है
स्मृति ही समस्या है
मेरी प्रीति समस्या है
कि मेरा संगीत कि मेरी स्मृति समस्या है
जो सभी आलोक हैं
जिस आलोक में मुझे
तुम्हें लाना है।
क्या वह आलोक-लोक भी समस्या है?
स्मृति के बाहर भी
आलोक-लोक हैं :
वहाँ समस्या नहीं है-
क्यों कि वहाँ सत्ता नहीं है
वहाँ वह संगीत भी नहीं है
जिसे सत्ता की स्मृति से
स्मृति की सत्ता बनाती है!
वह संगीत जो छाया को लाँघ कर
तुम्हें ला सके आलोक-लोक में!

               (16)

क्या विश्वास
प्रीति को बुलाता है?
हाँ तो, जैसे शिशु
माँ को।
तब कौन पहले है
कौन हेतु, कौन कर्ता?
संगीत! केवल संगीत!
न कर्ता न कर्म
केवल कारक, केवल संगीत!

               (17)

नहीं
अन्धकार वहाँ नहीं है
जहाँ वह गयी वहाँ अन्धकार क्योंकर है?
अन्धकार यहाँ भी नहीं है
जहाँ संगीत है वहाँ अन्धकार कैसे है?
बीच का द्वार ही अँधेरा है जहाँ लय टूटती है।
उसी देहरी पर
मेरी संगीत टूटता है।
मुझे
उसे लाना नहीं है :
मुझे उस तक पहुँचना है
अपने संगीत की भुजा फैला कर।
वह आये तो उसी भुजा में बँधी आएगी
मेरे पीछे उसका आना नहीं होगा।
संगीत ही भर दे वह अन्धकार द्वार
देहरी को दीप्त कर दे!
प्रकाश, प्रकाश,
देहरी पर, देहरी के पार प्रकाश
और प्रकाश में वह भुज-बद्ध!

               (18)

मैं यहाँ हूँ :
मेरा संगीत
यहाँ नहीं है।
वह देहरी है : मुक्ति की देहरी है
प्रकाशमान।
और मेरा संगीत प्रकाश है
जो तुम्हें अभिषिक्त करता है
तुम में प्राण डालता है
वहीं जहाँ तुम हो :
मेरा संगीत मैं यह जो
यहाँ हूँ।
मृत्यु को
मृत्यु का आलोक जीवन को
जीवन का ओ जीवन! ओ मरण! ओ वृन्द-वाद्य!
हम गाते हैं
जहाँ हैं! साथ दो!