रात एकाएक टूटी मेरी नींद
और सामने आयी एक बात
कि तुम्हारे जिस प्यार में मैं खोया रहा हूँ,
जिस लम्बी, मीठी नशीली धुन्ध में
मैं सब भूल कर सोया रहा हूँ,
उस की भीत जो है
वह नहीं है रति :
वह मूलतः है पुरुष के प्रति
नारी की करुणा।
अगाध, अबाध करुणा,
फिर भी-राग नहीं, करुणा।
नहीं, नहीं, नहीं!
ओ रात!
प्रात का और कुछ भी सच हो
पर इस से तो अच्छा है
जागते ही जागते
आग की एक ही धधक में
जल कर मरना!
नयी दिल्ली, 18 मई, 1968