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देह-वल्ली / अज्ञेय

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देह-वल्ली!
रूप को एक बार बेझिझक देख लो।
पिंजरा है? पर मन इसी में से उपजा।
जिस की उन्नति शक्ति आत्मा है।

देखो देह-वल्ली। भव्य बीज रूपाकारों का :
'निर्गन्धा इव किंशुका:!'
गन्ध के उपभोक्ता किन्तु कहें तो-
कब हम वसन्त के उन्मेष को नहीं उस एक संकेत से पहचान सके?
कब वह नहीं हुआ जीवन के चिरन्तन स्वयम्भाव का प्रतीक?

देखो : व्रीडाहीन। इस कान्ति को आँखों में समेट लो।
देखो रूप-नामहीन एक ज्योति
अस्मिता इयत्ता की ज्वाला अपराजिता अनावृता।

दिल्ली, 15 नवम्बर, 1953