Last modified on 29 अगस्त 2012, at 12:11

कवच / जेन्नी शबनम

आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:11, 29 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जेन्नी शबनम |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <Poem> सच...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


सच ही कहते हो
हम सभी का अपना अपना कवच है
जिसका निर्माण हम ख़ुद करते हैं
स्वेच्छा से
जिसके भीतर हम ख़ुद को कैद किये होते हैं
आदत से
फिर धीरे धीरे
ये कवच
पहचान बन जाती है
और उस पहचान के साथ
स्वयं का
मान अपमान जुड़ जाता है
शायद
इस कवच के बाहर
हमारी दुनिया कुछ भी नही
किसी सुरक्षा के घेरे में
बेहिचक जोख़िम उठाना
कठिन नही
क्योंकि यह पहचान होती है
एक उद्घोष की तरह...
आओ और मुझे परखो
उसी तराज़ू पर तौलो
जिस पर खरे होने की
तमाम गुंजाइश है !

(मार्च 21, 2012)