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तमाचा / संगीता गुप्ता

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उसका नाम
कुछ भी हो सकता है
नहीं जानती
क्योंकि
पूछ नहीं पायी

बीते दिसम्बर की
एक ठिठुरती शाम
सहमी, दुबकी सड़क पर
बेसब्र गाड़ियों की
उकताई कतारों के बीच
रेड लाइट के
सिगनल पर
वह
अचानक दीखा

उम्र
लगभग नौ-दस
गहरा काला सिकुड़ा शरीर
चेहरा सपाट
धुंधली, अटपटी आंखें
कांपते हाथ
फटी बुशर्ट
बटन टूटे
मैला पायजामा

कोहनी में
दबा पुलिंदा
उंगलियों पर
सरसराते
शाम के अखबार के पन्ने

वह
नन्हा बाजी़गर
मुस्तैदी से
हर कार के
वाइपर पर
अखबार फंसाता
ठक - ठक करता
बंद खिड़कियों पर
किसी कार की
खिड़की नहीं खुली

कार के अन्दर
बंद खिड़कियों के पीछे
स्वेटर, कोट, मोजे में भी
कांपती
कोट की जेबों में
हथेलियां
छुपाये
उसे देखती रही
असम्पृक्त
अविचल

अपनी भूख की
फिक्र में
सड़क छानता वह
हमारे सभ्य चेहरों पर
उठा
तमाचा