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कुछ क़तऐ / जावेद अख़्तर

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(1)
मुसाफि़र वो अजब है कारवाँ में
कि जो हमराह है शामिल नहीं
(2)
अब तक जि़न्दा रहने की तरकीब न आई
तुम आखि़र किस दुनिया में रहते हो भाई ।
(3)
लतीफ़ था वो तख़य्युल से,ख्वाब से नाजु़क
गवाँ दिया उसे हमने ही आज़माने में
(4)
बहस,शतरंज, शेर ,मौसी़की
तुम नहीं थे तो ये दिलासे रहे
(5)
आज फिर दिल है कुछ उदास-उदास
देखिए आज याद आए कौन ।
(6)
बदन में कै़द खु़द को पा रहा हूँ
बड़ी तन्हाई है,घबरा रहा हूँ ।
(7)
थोड़ी दूर अभी सपनों का नगर अपना
मुसाफिरों अभी बाकी है कुछ सफर अपना
(8)
कभी ये लगता है अब ख़त्म हो गया सब कुछ
कभी ये लगता है अब तक तो कुछ हुआ भी नहीं