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यक्ष-प्रश्न / विमल राजस्थानी

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मृत्यु भी तो है भयावह
जिन्दगी भी तो भयावह
जब यहाँ दोनों भयावह
क्या करे, इन्सान ! बोलो

मौन की मन्दाकिनी अस्वर,
तटों पर डोलता हूँ
तोड़कर यह वर्जना की अर्गला,
पट खोलता हूँ,
तुम न बोले, औ‘ न बोलोगे,
मगर मैं बोलता हूँ
नाम बस, केवल तुम्हारा सुन रहे हैं सृष्टि-अथ से
यदि छलावा तुम नहीं, फिर हो कहाँ, भगवान ! बोलो
पुण्य भरता सिसकियाँ, बस-
पाप ही फलता यहाँ है
भरा अच्छों के लहू से-
दीप ही जलता यहाँ है
दया, करूणा से लबालब
हृदय खाते ठेस पग-पग
दुखों के हिम में युधिष्ठिर-
कण्ठ तक गलता यहाँ है
सभ्य, सूधे गये पेरे, नृत्य-रत पापी, लुटेरे
ठोकरों में ठीकरों-सा क्या न वेद-पुराण ! बोलो
बहुत मीठी गन्धवाले
फूल-फल हैं, तितलियाँ हैं
बाँधती आलिंगनों में
नर्म, कोमल टहनियाँ हैं
हिम-शखर, नद, नदी, निर्झर,
विष उगलती चिमनियाँ हैं
लील जाता है धुआँ सुकुमार भावों की हँसी को
कौंधती इन बिजलियों में क्या करे, मुस्कान ! बोलो
स्वर्ण की विरूदावली को-
मुग्ध तारे सुन रहे हैं
रजत-चरणों पर अनादृत-
छन्द, रस सिर धुन रहे हैं
नदी सूखी, पर मछेरे जाल-
फिर भी बुन रहे हैं
घात में, हर डेग पर, बैठे असंख्य बहेलिये हैं
अधमरे पंछी, विपिन के हर लिये क्यों प्राण, बोलो
अट्टहासों में दबे चीत्कार, हाहाकार के स्वर
रक्त-रंजित छटपटाते क्या न कवि के गान, बोलो