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हे कामचारी मेघ / कालिदास

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»  हे कामचारी मेघ

तस्‍योत्‍सङ्गे प्रणयिन इव स्‍रोतङ्गादुकूलां
     न त्‍वं दृष्‍ट्वा न पुनरलकां ज्ञास्‍यसे कामचारीन्!
या व: काले वहति सलिलोद्गारमुच्‍चैर्विमाना
     मुक्‍ताजालग्रथितमलकं कामिनीवाभ्रवृन्‍दम्।।

हे कामचारी मेघ, जिसकी गंगारूपी साड़ी
सरक गई है ऐसी उस अलका को प्रेमी
कैलास की गोद में बैठी देखकर तुम न
पहचान सको, ऐसा नहीं हो सकता। बरसात
के दिनों में उसके ऊँचे महलों पर जब तुम
छा जाओगे तब तुम्‍हारे जल की झड़ी से वह
ऐसी सुहावनी लगेगी जैसी मोतियों के जालों
से गुँथे हुए घुँघराले केशोंवाली कोई कामिनी
हो।