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सत्संग-महिमा / सूरदास

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जा दिन संत पाहुने आवत ।

तीरथ कोटि सनान करैं फल जैसी दरसन पावत ।

नयौ नेह दिन-दिन प्रति उनकै चरन-कमल चित-लावत ।

मन बच कर्म और नहिं जानत, सुमिरत और सुमिरावत ।

मिथ्या बाद उपाधि-रहित ह्वैं, बिमल-बिमल जस गावत ।

बंधन कर्म जे पहिले, सोऊ काटि बहावत ।

सँगति रहैं साधु की अनुदिन, भव-दुख दूरि नसावत ।

सूरदास संगति करि तिनकी, जे हरि-सुरति कहावत ॥1॥