सब तजि भजिऐ नंद कुमार ।
और भजै तैं काम सरै नहिं, मिटै न भव जंजार ।
जिहिं जिहिं जोनि जन्म धार्यौ, बहु जोर्यौ अघ कौ भार ।
जिहिं काटन कौं समरथ हरि कौ तीछन नाम-कुठार ।
बेद, पुरान, भागवत, गीता, सब कौ यह मत सार ।
भव समुद्र हरि-पद-नौका बिनु कोउ न उतारै पार ।
यह जिय जानि, इहीं छिन भजि, दिन बीते जात असार ।
सूर पाइ यह समौ लाहु लहि, दुर्लभ फिरि संसार ॥1॥
जा दिन मन पंछी उड़ि जैहै ।
ता दिन तेरे तन-तरुवर के सबै पात झरि जैहैं ।
या देही कौ गरब न करियै, स्यार-काग-गिध खैहैं ।
तीननि में तन कृमि, कै विष्टा, कह्वै खाक उड़ैहै ।
कहँ वह नीर, कहाँ वह सोभा कहँ रँग-रूप दिखैहै ।
जिन लोगनि सौं नेह करत है, तेई देखि घिनैहैं ।
घर के कहत सबारे काढ़ौ, भूत होइ धर खैहैं ।
जिन पुत्रनिहिं बहुत प्रतिपाल्यौ, देवी-देव मनैहैं ।
तेई लै खोपरी बाँस दै, सीस फोरि बिखरैहैं !
अजहूँ मूढ़ करौ सतसंगति, संतनि मैं कछु पैहै ।
नर-बपु धारि नाहिं जन हरि कौं, जम की मार सो खैहै ।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु बृथा सु जनम गँवैहै ॥2॥
तिहारौ कृष्न कहत कह जातृ ?
बिछुरैं मिलन बहुरि कब ह्वै है, ज्यों तरवर के पात ।
सीत-बात-कफ कंठ बिरौधै, रसना टूटै बात ।
प्रान लए जम जात, मूढ़-मति देखत जननी-तात ।
छन इक माहिं कोटि जुग बीतत, नर की केतिक बात ।
यह जग-प्रीति सुवा-सेमर ज्यों, चाखत ही उड़ि जात ।
जमकैं फंद पर्यौ नहिं जब लगि, चरननि किन लपटात ?
कहत सूर बिरथा यह देही, एतौ कत इतरात ॥3॥
मन, तोसों किती कही समुझाइ ।
नंदनँदन के, चरन कमल भजि तजि पाखँड-चतुराइ ।
सुख-संपति, दारा-सुत, हय-गय, छूट सबै समुदाइ ।
छनभंगुर यह सबै स्याम बिनु, अंत नाहिं सँग जाइ ।
जनम-मरत बहुत जुग बीते, अजहुँ लाज न आइ ।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु जैहै जनम गँवाइ ॥4॥
धोखैं ही धोखै डहकायौ
समुझि न परी,
विषय-रस गीध्यौ; हरि-हीरा घर माँझ गँवायौ ।
ज्यों कुरंग जल देखि अवनि कौ, प्यास न गई चहूँ दिसि धायौ ।
जनम-जनम बह करम किए हैं, तिनमैं आपुन आपु बँधायो ।
ज्यौं सुक सेमर सेव आस लगि, निसि-बासर हठि चित्त लगायौ ।
रीतौ पर्यौ जबै फल चाख्यौ,उड़ि गयौ तूल, ताँवरौ आयौ ।
ज्यौं कपि डोर बाँधि बाजीगर, कन-कन कौं चौहटैं नचायौ ।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु, काल-व्याल पै आपु डसायौ ॥5॥
भक्ति कबन करिहौ, जनम सिरानौ ।
बालापन खेलतहीं खोयो, तरुनाई गरबानौ ।
बहुत प्रपंच किए माया के, तऊ न अधम अघानौ ।
जतन जतन करि माया जोरी, लै गयौ रंक न रानौ ।
सुत-वित-बनिता-प्रीति लगाई, झूठे भरम भुलानौ ।
लोभ-मोह तें चेत्यौ नाहीं, सुपने ज्यौं डहकानौ ।
बिरध भऐं कफ कंठ बिरौध्यौ, सिर धुनि-धुनि पछितानौ ।
सूरदास भगवंत-भजन-बिनु, जम कैं हाथ बिकानौ ॥6॥
तजौ मन हरि, बिमुखनि कौ संग ।
जिनकैं संग कुमति उपजति है, परत भजन में भंग ।
कहा होत पय पान कराऐँ, विष नहिं तजत भुजंग ।
कागहिं कहा कपूर चुगाऐं, स्वान न्हावाऐं गंग ।
खर कौं कहा अरगजा-लेपन, मरकट भूषन-अंग ।
गज कौं कहा सरित अन्हवाऐं, बहुरि धरै वह ढंग ।
पाहन पतित बान नहिं बेधत, रीतौ करत निषंग ।
सूरदास कारी कामरि पै, चढ़त न दूजी रंग ॥7॥
रे मन मूरख जनम गँवायौ ।
करि अभिमान वुषय-रस गीध्यौ, स्याम-सरन नहिं आयौ ।
यह संसार सुवा-सेमर ज्यौं, सुन्दर देखि लुभायौ ।
चाखन लाग्यौ रुई गई उड़ि हाथ कहिं आयौ ।
कहा होत अब के पछिताऐँ पहिलैं पाप कमायौ ।
कहत सूर भगवंत-भजन बिनु, सिर धुनि-धुनि पछितायौ ॥8॥