करी गोपाल की सब होइ ।
जो अपनौ पुरुषारथ मानत, अति झूठौ है सोइ ।
साधन, मंत्र, जंत्र, उद्यम, बल, ये सब डारौ धोइ ।
जो कछु लिखि राखी नँदनंदन, मेटि सकै नहिं कोइ ।
दुख-सुख, लाभ-अलाभ समुझि तुम, कतहिं मरत हौ रोइ ।
सूरदास स्वामी करुनामय, स्याम-चरन मन पोइ ॥1॥
होत सो जो रघुनाथ ठटै ।
पचि-पचि रहैं सिद्ध, साधक, मुनि , तऊ न बढ़ै-घटै ।
जोगी जोग धरत मन अपनैं अपनैं सिर पर राखि जटै ।
ध्यान धरत महादेवऽरु ब्रह्मा, तिनहूँ पै न छटै ।
जती, सती, तापस आराधैं, चारौं बेद रटै ।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु, करम-फाँस न कटै ॥2॥
भावी काहू सौं न टरे ।
कहँ वह राहु, कहाँ वै रवि ससि, आनि सँयोग परै ।
मुनि बसिष्ट पंडित अति ज्ञानी, रचि-पचि लगन धरै ।
तात-मरन, सिय हरन, राम बन-बपुधरि बिपति भरै ।
रावन जीति कोटि तैंतीसौ, त्रिभुवन राज करै ।
मृत्युहिं बाँधि कूप मैं राखै, भावी-बस सो मरै ।
अरजुन के हरि हुते सारथी, सोऊ बन निकरै ।
द्रुपद-सुता कौ राजसभा, दुस्सासन चीर हरै ।
हरीचंद सो को जगदाता, सो घर नीच भरै ।
जौ गृह छाँड़ि देस बहु धावै, तउ सग फिरै ।
भावी कैं बस तीन लोक हैं, सुर नर देह धरै ।
सूरदास प्रभु रची सु ह्वै है, को करि सोच मरै ॥3॥
तातैं सेइयै श्री जदुराइ ।
संपति बिपति, बिपतितैं संपति, देह कौ यहै सुभाइ ।
तरुवर फूलै, फरै, पतझरै, अपने कालहिं पाइ ।
सरवर नीर भरै भरि, उमड़ै सूखै खेह उड़ाइ ।
दुतिया चंद बढ़त ही बाढ़े , घटत-घटत घटि जाइ ।
सूरदास संपदा-आपदा, जिनि कोऊ पतिआइ ॥4॥