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अविद्या-माया / सूरदास

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बिनती सुनौ दीन की चित्त दै, कैसें तुव गुन गावै ?

माय नटी लकुटी कर लीन्हें कोटिक नाच नचावै ।

दर-दर लोभ लागि लिये डोलति, नाना स्वाँग बनावै ।

तुम सौं कपट करावति प्रभु जू, मेरी बुधि भरमावै ।

मन अभिलाश-तरंगनि करि करि, मिथ्या विसा जगावै ।

सोवत सपने मैं ज्यौं संपति, त्यौ दिखाइ बौरावै ।

महा मोहनी मोहि आतमा, अपमारगहिं लगावै ।

ज्यौं दूती पर-बधू भोरि कै, लै पर-पुरुष दिखावै ।

मेरे तो तुम पति , तुमहिं गति, तुम समान को पावै ?

सूरदास प्रभु तुम्हरी कृपा बिनु, को मो दुख बिसरावै ॥1॥


हरि, तेरो भजन कियौ न जाइ ।

कह करौं, तेरी प्रबल माया देति मन भरमाइ ।

जबै आवौं साधु-संगति, कछुक मन ठहराइ ।

ज्यौं गयंद अन्हाइ सरिता, बहुरि वहै सुभाइ ।

बेष धरि धरि हर्‌यौ पर-धन, साधु-साधु कहाइ ।

जैसे नटवा लोभ -कारन करत स्वाँग बनाइ ।

करौं जतन, न भजौं तुमकों, कछुक मन उपजाई ।

सूर प्रभु की सबल माया. देति मोहि भुलाइ ॥2॥