रोको न अश्रु को, अवसर दो, झर-झर कर बाहर आने दो
इनको भी अपनी व्यथा-कथा, इस धरती को बतलाने दो
पत्थर का हिया पसीजा है
करूणा से अन्तर भीजा है
उमगी है आँसू की धारा
जब दर्द ताप से सीझा है
जग कहे भले-झरनें, झीलें,
सरिताएँ, नद, नदियाँ, नाले
पर ये है अश्रु शिलाओं के
फूटे हैं दर्द भरे छाले
धरती ने अमित प्यार देकर, छाती से इन्हें लगाया है
अन्तर-निर्झर उछला, इसको भी प्यार धरा का पाने दों
निर्झर न निरन्तर झरा करे
तब ताप प्रकृति का कौन हरे
तारों की पीर ओस बनकर
दूर्वांजलियों को जो न भरे
कैसे जग जीवन पायेगा
कण-कण धरती का गायेगा
कवि का मन-पंछी-सतरंगी-
पाँखें कैसे फैलायेगा
छींटा न अश्रु-जल का होगा, दुख-भार नहीं हल्का होगा
नयनों के सावन-भादो को खुल-खिल कर दुख बरसाने दों