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पावस-प्रसंग / विमल राजस्थानी

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बादल गरजे, बिजुरी चमके, बहें हवाएँ जोर से !
बाँध रहा धरती को अम्बर, निहुर-निहुर छवि-डोर से !!
धूल-धुली वैरागी वन की
पावस-अमिय-फुहार से
कलियों ने फूलों को ताका-
तिरछे नयनों, प्यार से
जल-थल, भू-नभ एक हो रहे, मधुर मिलन की धूम है
नख-शिख भींग गये गिरि-कानन सुख की पुलक हिलोर से
ठुमकी झील, ताल भी थिरके
कूप खुले क्षिति-रोम के
आँज रही, बिजुरी घन-काजल-
बरस रहे दृग व्योम के
निखर गया धरती का तन-मन, खग-कुल झुरमुट से उछल
तिरछी ग्रीवा, पंख फड़फड़ा मोती वारें ठोर से
बूँदों की बजती पैजनियाँ
नाच हवा बेहाल है
पात-पात तालियाँ बजाता
घन-रव देता ताल है
झुक-झुक कर तरू चुम्बन माँगें, नदी उफल इठला रही
जीवन-कण माँगती मयूरी, पुलकित-नर्तित मोर से
शीत सुई की भाँति प्रकृति के रोम-रोम में चुभ रहा
रजनी लिपटी पड़ी अभी तक गर्म हो रहे भोर से