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उत्सव / ईमान मर्सल

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कहानी का धागा ज़मीन पर गिरा और खो गया, सो मैं घुटनों के बल झुकी, हाथों पर चलती हुई उसे खोजने लगी। वह देशभक्ति के नाम पर हो रहा उत्सव था और उस तरह चलते हुए मुझे सिर्फ़ जूते ही जूते दिख रहे थे।

एक बार, एक ट्रेन में, एक अफ़ग़ान औरत, जिसने कभी अफ़ग़ानिस्तान देखा तक नहीं था, उसने मुझसे कहा, 'जीतना संभव है।' क्या वह कोई भविष्यवाणी थी? मैं पूछना चाहती थी। लेकिन मेरी फ़ारसी नौसिखियों की किताबों की तरह थी और मुझे सुनते हुए वह मेरी ओर ऐसे देख रही थी, जैसे उस आलमारी से अपने लिए कपड़ा चुन रही हो जिसका मालिक आगजनी में जल मरा।

फ़र्ज़ कीजिए कि चौराहे पर मार तमाम जनता इकट्ठा हुई। फ़र्ज़ कीजिए कि 'जनता' कोई फूहड़ शब्द नहीं है और यह भी कि 'मार तमाम' जैसे मुहावरे का अर्थ सब जानते हैं। फिर ये सारे पुलिस के कुत्ते यहां क्या रहे हैं? उनके चेहरों पर किसने ये रंगबिरंगे मास्क लगा दिए? सबसे अहम बात तो यह, कि वह रेखा कहां है जो झंडियों और चड्ढियों को अलग करे, जो भजन और अभिशाप को अलग करे, ईश्वर और उसकी कृतियों को अलग करे-- वे कृतियां जो टैक्स भरती हैं और पृथ्वी पर चलती हैं?

उत्सव। ऐसे कह रही, जैसे दुबारा यह शब्द कभी न कहूंगी। जैसे किसी ग्रीक शब्दकोश से निकला हुआ शब्द है, जिसमें स्पार्टा के विजेता सैनिक घर लौट रहे हों और उनके भालों और ढालों पर फ़ारसियों का ख़ून अभी भी गीला हो।

शायद कोई दर्द ही नहीं था, कोई भविष्यवाणी भी नहीं, कोई अफ़ग़ान महिला मेरे सामने दो घंटे नहीं बैठी रही थी। कई बार, महज़ अपने मनोरंजन के लिए, ईश्वर हमारी स्मृतियों को बहका देता है। इस समय जहां हूं मैं, जूतों ही जूतों के बीच इस जगह, इस जगह से कभी ठीक-ठीक मैं यह जान नहीं पाऊंगी कि किसने, किस पर जीत हासिल की।

अंग्रेजी से अनुवाद : गीत चतुर्वेदी