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ये न हरगिज़ सोचना तुम, हम कमाने आए हैं / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

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ये न हरगिज़ सोचना तुम, हम कमाने आए हैं
अब तलक जो भी बचाया है, लुटाने आए हैं

मुद्दतों तन्हाई में जो गुनगुनाए थे कभी
खुद-ब-खुद उनके लबों पर वो तराने आए हैं

एक हो जाएंगे जिस्मो-जाँ फक़त एहसास से
दो दिलों में प्यार की शमआ जलाने आए हैं

देख लो दुनिया है जितनी जब तलक है दम में दम
कल की है किसको ख़बर हम ये बताने आए हैं

बन के गीदड़ रह न जाए आने वाली नस्ल ये
शेर के एहसास से वाकिफ़ कराने आए हैं

रोज़आता था लगाने डुबकियाँ गंगा में ख़ुद
लोग उसकी अस्थियाँ, इसमें बहाने आए हैं

रूठकर वो चल दिए, कहकर, न आएंगे 'रक़ीब'
एक अर्से बाद आखिर ख़ुद मनाने आए हैं