चीरहरण करती है दिल्ली
कवि: जयकृष्ण राय तुषार
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यमुना में गर चुल्लू भर पानी हो दिल्ली डूब मरो । स्याह ... चाँदनी चौक हो गया नादिरशाहो तनिक डरो । नहीं राजधानी के लायक चीरहरण करती है दिल्ली, भारत माँ की छवि दुनिया में शर्मसार करती है दिल्ली, संविधान की क़समें खाने वालो, कुछ तो अब सुधरो । तालिबान में, तुझमें क्या है फ़र्क सोचकर हमें बताओ, जो भी गुनहगार हैं उनको फाँसी के तख़्ते तक लाओ, दुनिया को क्या मुँह दिखलाओगे नामर्दो शर्म करो । क्राँति करो अब अत्याचारी महलों की दीवार ढहा दो, कठपुतली परधान देश का उसको मौला राह दिखा दो, भ्रष्टाचारी हाक़िम दिन भर गाल बजाते उन्हें धरो । गोरख पांडेय का अनुयायी चुप क्यों है मजनू का टीला, आसमान की झुकी निगाहें हुआ शर्म से चेहरा पीला, इस समाज का चेहरा बदलो नुक्कड़ नाटक बन्द करो । गद्दी का गुनाह है इतना उस पर बैठी बूढी अम्मा, दु:शासन हो गया प्रशासन पुलिस-तन्त्र हो गया निकम्मा , कुर्सी बची रहेगी केवल इटली का गुणगान करो ।