जय हे भारत ! हे प्रकाश-रत !
दिव्य-ज्योति-अन्वेषी !
तव जन-जन-मन, तृण-तृण,
कण-कण, अणु-अणु शुभ्र-सुवेशी
मस्तक पर हिम-हास विराजे
सिन्धु-तरंग चरण पर साजे
बाँधे इन्द्रधनुष क्षितिजों को
सांद्र मेघ-रव घुमड़े, बाजे
आदि जनक अभिनव संस्कृति के
सृष्टि-दृष्टि-उन्मेषी
सूर्य-चन्द्र आरती उतारें
बन प्रदीप जल उठते तारे
ऊषा हँसे, साँझ मुस्काये
चटक चाँदनी विहँसे द्वारे
विनत वर्ग, नत सकल श्रेणियाँ
जग तव पद-अनुवेशी
सब धर्मों के आश्रय-दाता !
तुमको रच कर धन्य विधाता
तव पद-रज में लोट-लोट कर
परम ब्रह्म अतिशय सुख पाता
सब के हित कल्याण-कामना
सब के परम हितैषी
जय हे भारत ! हे प्रकाश-रत !
दिव्य-ज्योति-अन्वेषी !