Last modified on 18 फ़रवरी 2013, at 12:21

औरत / दिविक रमेश

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:21, 18 फ़रवरी 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिविक रमेश |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <poem> वह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

वहाँ भी आग है
कहा किसी ने ।

मैंने पूछा —
सबूत ?

उठता हुआ धुआँ
दिखा दिया उसने ।

क्या उसे
सच में नहीं मालूम
वहाँ
बटोरी गई
गीली-सूखी लकड़ियों से खप रही
एक औरत है —

सदियों से / आग के लिए
धुएँ से लड़ रही
एक औरत ।