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निर्वासन / दिनकर कुमार

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नदी के इस छोर से आती तुम्हारी पुकार दूसरी छोर से मैं सुन सकता हूँ
पत्थरों पर अंकित माँझी की विरह-गाथा को मन की आँखों से पढ़ सकता हूँ
जब वीरानी का चादर नदी के सीने पर पसर जाए तो मैं माँझी बन सकता हूँ
मैं सभ्यता के कूड़ेदान से दूर आबादी की सड़ांध से दूर वन में भी रह सकता हूँ

जब किसी गीत का राग उत्कर्ष पर हो तब गायन को रोका नहीं जाता
तालाब में सपने देखने वाली मछलियों को तेजाब डालकर अंधा नहीं किया जाता
भूख से बिल-बिलाते हुए बच्चों के मुँह में सूखे हुए स्तन को नहीं ठूँसा जा सकता
पेड़ के छाल को पीसकर अकालग्रस्त क्षेत्र में मरने वालों को नहीं बचाया जा सकता

वसन्त आता है तो ड्राइंगरूम के रंगीन कैलेन्डरों में क़ैद हो जाता है
महलों के भीतर शीशे के कलात्मक हिस्सों में क़ैद बुलबुल रोती है
यातनाओं की सुरंग में वर्तमान का चेहरा पूरी तरह ग़ुम हो जाता है
जब अंतड़ियों में ऐंठन होती है तब प्रेम की सारी बातें हवा हो जाती हैं

पतझड़ के मौसम में मैं तुम्हारे लिए हरियाली बटोर कर नहीं ला सकता
मैं झड़े हुए पीले पत्तों पर अपने लहू से किसी का नाम नहीं लिख सकता
मैं ठंड से ठिठुरते हुए भिखारियों की प्रार्थना का अर्थ नहीं बयान कर सकता
अपने हृदय में जलती आग को मैं नदी के उस पार तुम्हारे हृदय तक नहीं पहुँचा सकता

न जाने कितनी पुकार जलधारा की वेग में गुम होकर गूँगी हो जाती है
न जाने कितने शोक-गीत उत्सव के शोर में दबकर विलीन हो जाते हैं
न जाने कितने सपने पथराई हुई आँखों की पगडंडी में राह भूल जाते हैं
न जाने कितने माँझी किनारे के बहुत करीब पहुँचकर चुपचाप डूब जाते हैं ।