Last modified on 4 जनवरी 2008, at 20:55

अखरावट / पृष्ठ 6 / मलिक मोहम्मद जायसी

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:55, 4 जनवरी 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मुखपृष्ठ: अखरावट / मलिक मोहम्मद जायसी

<< पिछला भाग


दोहा

जिया जंतु जत सिरजा, सब महँ पवन सो पूरि ।
पवनहि पवन जाइ मिलि, आगि,बाउ,जल धूरि ॥

सोरठा

निति सो आयसु होइ, साईं जो आज्ञा करै ॥
पवन-परेवा सोइ, मुहमद बिधि राखे रहै ॥51॥

बड करतार जिवन कर राजा । पवन बिना कछु करत न छाजा ॥
तेहि पवन सौं बिजुरी साजा । ओहि मेघ परबत उपराजा ॥
उहै मेघ सौं निकरि देखावै । उहै माँझ पुनि जाइ छपावै ॥
उहै चलावै चहुँदिसि सोई । जस जस पाँव धरै जो कोई ॥
जहाँ चलावै तहवाँ चलई । जस जस नावै तस तस नवई ॥
वहुरि न आवै छिटकत झाँपै । तेहि मेघ सँग खन खन काँपै ॥
जस पिउ सेवा चूखे रूठै । परै गाज पुहुमी तपि कूटै ॥

दोहा

अगिनि, पानि औ माटी, पवन फूल कर मूल ।
उहई सिरजन कीन्हा, मारि कीन्ह अस्थूल ॥

सोरठा

देखु गुरू, मन चीन्ह, कहाँ जाइ खोजत रहै ।
जानि परै परबीन, मुहमद तेहि सुधि पाइए ॥52॥

चेला चरचत गुरु-गन गावा । खोजत पूछि परम गति पावा ॥
गुरु बिचारि चेला जेहि चीन्हा । उत्तर कहत भरम लेइ लीन्हा ॥
जगमग देख उहै उजियारा । तीनि लोक लहि किरिन पसारा ॥
ओहि ना बरन, न जाति अजाती । चंद न सुरुज; दिवस ना राती ॥
कथा न अहै, अकथ भा रहई । बिना बिचार समुझि का परई ?॥
सोऽहं सोऽहं बसि जो करई । जो बूझै सो धीरज धरई ॥
कहै प्रेम कै बरनि कहानी । जो बूझै सो सिद्धि गियानी ॥

दोहा

माटी कर तन भाँडा, माटी महँ नव खंड ।
जे केहु खेलै माटि कहँ, माटी प्रेम प्रचंड ॥

सोरठा

गलि सोइ माटीं होइ, लिखनेहारा बापुरा ।
जौ न मिटावै कोइ, लिखा रहै बहुतै दिना ॥53॥