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वेद हैं / ‘हरिऔध’

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सब विद्या के मूल, जनक हैं सकल कला के।
विविधा-ज्ञान आधार, रसायन हैं अचला के।
सुरुचि विचार विवेक विज्ञता के हैं आकर।
हैं अपार अज्ञान तिमिर के प्रखर प्रभाकर।
परम खिलाड़ी प्रभु करों के लोकोत्तार गेंद हैं।
भव-सागर के सेतु ए जगत उजागर वेद हैं।1।

जब सारा संसार अचेतन पड़ा हुआ था।
निज पाँवों पर जीव नहीं जब खड़ा हुआ था।
रहा जिन दिनों अंधकार भूतल पर छाया।
जब न ज्ञान रवि-बिम्ब निकलने भी था पाया।
तभी प्रगट हो जिन्होंने बतलाये सब भेद हैं।
वे ही सारे लोक के दिव्य विलोचन वेद हैं।2।

जिनके सिर पर मुकुट जगत गुरुता का राजे।
जिनके मुख पर लोक चकित कर ज्योति बिराजे।
जिनके कर में भुक्ति-मुक्ति का सूत्र लसा है।
जिनका सारा अंग अलौकिक सुरभि बसा है।
जिनके पूत प्रभाव से मिटे भव-जनित खेद हैं।
सकल अपावनता दमन ए जग-पावन हैं।3।

कामधेनु सी कामद उनकी रुचिर ऋचा है।
उनका पूत प्रसंग निराली सुधा सिंचा है।
वे हैं चिंतामणि समान चिन्तित फलदाता।
उनसे सब कुछ जगत कल्पतरु लौं है पाता।
परम अगम भव-पंथ चल जोजन डूबे स्वेद हैं।
उनको मलया-सीर लौं महामोद-प्रद वेद हैं।4।

वे बहु साधन विटप वृन्द के हैं वर थाले।
सकल यम नियम गये गोद में उनकी पाले।
श्रद्धा और विश्वास हुए लालित उन से ही।
विमल सरोवर भक्ति कमलिनी के हैं वे ही।
अपरा विद्या मेदिनी मूल-भूत इव मेद हैं।
सुरभि पर विद्या सुमन बुधा जन वंदित वेद हैं।5।

इनमें से ही ज्योति जगमगा कर वह फूटी।
जिससे विकसित हुई सभ्यता जड़ता छूटी।
उसकी ही अभिनन्दनीय कल-कान्ति सहारे।
दमक रहे हैं सकल जगत मत के दृग तारे।
    आँख डालकर देखिए मिलते अल्प विभेद हैं।
सकल धर्म सिद्धांत के अवलम्बन ए वेद हैं।6।

बुद्ध देव का परम दिव्य दीपक अवलोका।
ईसा का बहु विदित दमकता लंप विलोका।
देखी अति कमनीय शमा जश्र-दश्त जलाई।
निपट कान्त कन्दील मुहम्मद की दिखलाई।
पर विकास की दृष्टि से ए सर्वथा अभेद हैं।
करते आलोकित इन्हें आलोकाकर वेद हैं।7।

चाहे त्रिपिटक निज विभूति उनको बतलावें।
चाहे उनको जैन ग्रन्थ निज वस्तु बतावें।
निज अनुभव फल उन्हें क्या न इनजील बखाने।
उनको जिश्न्द कुरान भले ही स्वविभव माने।
किन्तु सत्य हम कथन कर नहिं करते विच्छेद हैं।
सर्वभौम सिद्धांत के आदि प्रवर्तक वेद हैं।8।

प्लेटो कोमत का अलाप अनुपम सुन पाया।
केंट के परम ललित लयों ने बहुत रिझाया।
सुपनहार के मधुर तान ने हृदय लुभाया।
स्पेंसर के अति सरस राग ने मुग्ध बनाया।
दान्ते के कल गीत से मिटते मानस क्लेद हैं।
पर स्वर से जाना, उन्हें स्वरित बनाते वेद हैं।9।

ऐसा व्यक्ति विशेष सभी मत है बतलाता।
जिसके माने बिना मुक्ति कोई नहीं पाता।
किन्तु एक वैदिक मत ही ऐसा है प्यारे।
जिसमें नर तरता है निज व्यक्तित्व सहारे।
रख सुकर्म रत फलों में उपजाते निर्वेद हैं।
केवल ज्ञान-प्रभाव से मुक्ति दिलाते वेद हैं।10।

किसी जाति मत पंथ का मनुज कोई होवे।
जो प्रभु पद को गहे मलिनता चित की खोवे।
सदाचार रत रहे पाप तज जग हित साधो।
तो वह होगा मुक्त बिना प्रति भू आराधो।
गिरा परम गंभीर से करते भ्रम उच्छेद हैं।
मुक्त-कंठ से बात यह कहते केवल वेद हैं।11।

जब उपासनाएँ प्रतीक हैं काम चलाती।
नर उर में विज्ञान ज्योति है जब जग जाती।
मध्य दशाओं सहित दशा यह आदिम अंतिम।
जिनमें पड़कर हुई मनुज की महिमा अप्रतिम।
उनके अति व्यापक फलद कहे भेद उपभेद हैं।
क्योंकि सर्वदर्शी विशद सर्व ज्ञानमय वेद हैं।12।

किसी ग्रन्थ मत पंथ धर्म साधन का खंडन।
वे नहीं करते मिले क्योंकि वे हैं महि मंडन।
वे हैं उनके जनक विकासक जीवन दाता।
वे तब थे जब था न किसी का नाम सुनाता।
इसीलिए यद्यपि नहीं वे रखते संभेद हैं।
तो भी उन पर प्रेम जल वर्षण करते वेद हैं।13।

पंचभूत जल पवन आदि ऊपर है जैसा।
प्राणीमात्र अधिकार वेद पर भी है वैसा।
उनकी ऊँची आँख नहीं कहीं पर है अड़ती।
वह समान सब जाति देश पर ही है पड़ती।
सदा तुल्य उनके लिए यूरप अन्तर्वेद हैं।
सकल जगत हित में निरत विश्व प्रेम-रत वेद हैं।14।

थोड़ा अन्तर भ्रातृ-भाव में है रह जाता।
वैदिक मत है इसीलिए यह पाठ पढ़ाता।
मानव ही को नहीं सभी जीवों को मानो।
निज आत्मा समान आत्मा सब की जानो।
वंश जाति गत दृष्टि का वे करते उद्भेद हैं।
है कुटुम्ब वसुधा सकल यह बतलाते वेद हैं।15।

आये दिन ए शैव वैष्णव रगड़े कैसे।
धर्म सभा के औ समाज के झगड़े कैसे।
हमें बता दो सौर शक्ति क्यों हैं लड़ पड़ते।
क्यों वेदान्ती लोग कुछ दृगों में है गड़ते।
लोग परस्पर किसलिए करते वृथा कुरेद हैं।
जब कि धर्म के विषय में मान्य सभी के वेद हैं।16।

हैं विचित्राताएँ विचार रुचि की स्वाभाविक।
किन्तु न होगा उचित काक बन जावे यदि पिक।
भिन्न भिन्न मत गत विचित्रता ही है जीवन।
यदि समाज के लिए बने वह जड़ी सजीवन।
किन्तु लोक-हित हृदय में जो जन करते छेद हैं।
वे न जानते मर्म हैं न तो मानते वेद हैं।17।

विविधा गठन और रूप रंग जिनका हैं पाते।
वे बाजे हैं सदा मिलाने से मिल जाते।
रखते हुए स्वकीय भाव सारा ढँग न्यारा।
वे मिलते हैं एक देह-व्यापी स्वर द्वारा।
बने भले ही नित रहें जितने उचित प्रभेद हैं।
पर वे हृदय मिले रहें जिनमें बसते वेद हैं।18।

गजरों में है बिबिधा फूल को सूत्र मिलाता।
गहनों में है बिबिधा नगों का मेल दिखाता।
वे सब न्यारा रूप रंग अपना नहीं खोते।
पर तो भी हैं एक सिद्धि के साधान होते।
यों ही शुभ उद्देश्य से, हम पूछते सखेद हैं।
क्या वे मिल सकते नहीं जिन्हें मिलाते वेद हैं?।19।

मिल सकते हैं, जो न भूल अपने को जावें।
करें सत्य को प्यार कलह को मार भगावें।
धर्म ओट में कभी न जी का मैल निकालें।
रखें प्रेम का मान सुजनता को प्रति पालें।
पर को खेदित कर न जो रहते स्वयं अखेद हैं।
मुख उन का संसार में उज्ज्वल करते वेद हैं।20।

प्रभो! प्रभा वैदिक मत की भूतल में फैले।
लघु बातों के लिए न होवें मानस मैले।
सब सच्चे जी से कुटुम्ब वसुधा को माने।
विश्व-प्रेम के महामन्त्र की महिमा जाने।
हुए वितण्डावाद में जिनके बाल सुपेद हैं।
वे अभिज्ञ हों, देवता शान्ति मंत्रा के वेद हैं।21।