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दिल्ली / रामजी यादव

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 एक दिन चले जाएँगे वे सभी जो कभी आए थे
दिल्ली में इस सपने के साथ कि यहीं रहेंगे
रचेंगे कविताएँ और सुने जाएँगे देशभर में
क्योंकि यहीं से जाती है आवाज़ हर कहीं
और यहीं पर है जन्तर-मन्तर

एक दिन भूल जाएँगे अपने जन्म-जनपद को
करेंगे कभी-कभी याद और तरस खाएँगे उसके सुविधाहीन पर्यावरण पर

इमारतों के इस बियाबान में जिन्होंने तलाशे थे कुछ पते
और पहुँचते हुए यदा-कदा शामिल हो जाते छँटी हुई भीड़ में
इस तरह वे समझते कि वे एक साँस्कृतिक पर्यावरण में हैं

बहुत देर बाद उन्हें भान हुआ कि दलालों की इस बस्ती में
एक दिन वही बचेगा जो अफ़सर होगा
या दो-चार अफ़सरों से कर सकता है यारबाशी
वही पाएगा कोई पुरस्कार और माना जाएगा वही कुछ
जो लिख देगा उनकी किताब की एक समीक्षा

जो बात करेगा इसके विरुद्ध
जो बात करेगा जनता के बारे में
जो बात करेगा साँस्कृतिक एडल्ट्रेशन के ख़िलाफ़
जो बात करेगा कि रुलाई और रुलाई में फ़र्क होता है
जो बात करेगा कि मुस्कान और मुस्कान में फ़र्क होता है
जो करेगा इंगित कि कुछ लोग ज़ोर से रोते हैं इसलिए की पीढ़ियों से जानते हैं रोने की कला
बिना मुद्दे को व्यक्त करते हैं कुछ अदृश्य दुःख
मुस्कराते हैं कुछ लोग कि निर्मम तंत्र के ख़िलाफ़ अपना वजूद बचा सकें
भूख से लड़ने और कातरता से बचने के लिए साथ-साथ चलनेवाली कार्रवाई
के दोहरे दायित्व से जो संपन्न करेंगे कविता को

वे बेरोज़गार मार दिए जाएँगे बेमुरौव्वत
हँस लिया जायेगा सरेआम उनकी बेबसी पर
बाहर कर दिया जाएगा शब्दों की दुनिया से
फिर भी सत्ताएँ रखेंगी उन्हीं से सहानुभूति की उम्मीद

हर जगह से लोग जासूसी करेंगे कि कब उठाते हैं वे दया के लिए अपने हाथ

जिन्होंने इस शहर को महसूस किया होगा अपनी धमनियों में
और एक मोहल्ले की तरह जिया होगा उसे हर साँस में
और उसके सौन्दर्य को देखा होगा मनुष्यता की लाज की तरह
वे खदेड़ दिए जाएँगे एक दिन वहाँ से बेरहमी से

भारत के न जाने किन कोने-अंतरों से आए वे लोग
जो विचारों से संपन्न होंगे और भाषा को ले जाएँगे एक दिन ज़िन्दगी के दरवाज़े तक
फिर से बिखर जाएँगे न जाने कहाँ-कहाँ
आगरा, मथुरा, बनारस और कानपुर
मुम्बई, बडौदा, लातूर और किशनगंज
और रह जाएँगे एक नाम की तरह पानी पर लिखे गए

क्यों चले जाएँगे वे आख़िर इस शहर से ?
क्या डंकल से ओबामा के दौर तक
मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलुवालिया के निज़ाम तक
उससे भी आगे और आगे ढेरों बरस

ज़रुरत है दिल्ली को बस ऐसे लोगों की जो नफ़ीस हों दिखने में
लेकिन सपने मर गए हों उनके या बिक गए हो सत्ता के हाथ
क्लर्क हों, अफ़सर हों , क़ातिल हों , जाहिल हों
बस जनता की बात न करें

और सोचें न कविता यात्रा निकालने के बारे में !!