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पर्णकुटी / ‘हरिऔध’

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ऊँचे श्यामल सघन एक पादप तले।
है यह एक कुटीर सित सुमन सज्जिता।
इधर उधा हैं फूल बेलियों में खिले।
वह है महि श्यामायमान छबि मज्जिता।1।

पास खड़े हैं कदाकार पादप कई।
परम शान्त है प्रकृति निपट नीरव दिशा।
व्यापी सी सब ओर कालिमा है नई।
धीरे धीरे आगत प्राया है निशा।2।

या नभ मण्डल जलद जाल से है घिरा।
छिति तल पर है उसकी छाया पड़ रही।
प्रात तिमिर है तरल हो गया तिरमिरा।
या है नभ तल विमल नीलिमा झड़ रही।3।

हैं न कहीं खग मृग मानव दिखला रहे।
मानो अविचल वहाँ बिजनता राज है।
हैं अभाव धारा में ही कृमि कुल बहे।
रव सिर पर भी परम मौनता ताज है।4।

यह किस की है कुटी कहें कैसे इसे।
किसी व्यथित चित का क्या यह आवास है।
या यह उस जन की सहेलिका है जिसे।
निर्जन में एकान्तबास की प्यास है।5।

परम पापमय इस पापी संसार से।
समधिक आकुल जिसका मानस हो गया।
बहुत गया जो ऊब अवास्तव प्यार से।
जिसका प्यारा शान्ति-रत्न है खो गया।6।

जो अवलोकन कर पाता वह मुख नहीं।
लगी अधमता की है जिस पर कालिमा।
या हिंसकता धाराएँ जिस पर बहीं।
या जिसकी है लहू रंजित लालिमा।7।

गिरा अति दुखित चित जिसका दुख कूप में।
उस दानव की देख नीतियाँ दानवी।
अवनी तल पर जिसको मानव रूप में।
उपजाती है परम पुनीता मानवी।8।

उतर आँख में जिसकी आता है लहू।
उस पामर की पामरताओं को लखे।
सब बातों में जो दानव है हूबहू।
किन्तु वेश वानक बृन्दारक का रखे।9।
नर पिशाचता अहमहमिकता अधामता।

अवलोकन कर जिसका जी उकता गया।
जग मदांधाता मायिकता बहु असमता।
देख कलेजा मुँह को जिसका आ गया।10।
बिजन बिराजित ऐसी किसी कुटी सिवा।

कौन दूसरी शान्ति विधायिनि है उसे।
मिली कहाँ वह अति पावन प्यारी हवा।
हों न अपावन रुचि रज कण जिसमें बसे।11।

भारत के बहु विबुधा वृन्द सहवास से।
यह है वसुधा विविधा पुनीत प्रशंसिता।
पा अनुपम आलोक उन्हीं के पास से।
इसने की है सकल अवनि आलोकिता।12।

है प्रभावित यह बहु तपो प्रभाव से।
गिरि तनयाने इसे विपुल गौरव दिया।
जन रंजन मुनिजन ने पूजित भाव से।
इसका बहु अभिनन्दन अनुरंजन किया।13।

केकैय तनय प्रबल प्रपंचों में पड़े।
कुसुम सेज जब रघुकुल रंजन की छिनी।
वन में उन पर जब दुख पड़े बड़े कड़े।
तब कुटीर ही रही विराम विधायिनी।14।

देश-प्रेम औ जाति-प्रेम प्रेमिक बने।
विविध यातना जब नृप पुंगव ने सही।
जब प्रताप से प्रिय परिजन तक थे तने।
तब कुटीर ही उनका अवलंबन रही।15।

निकल आह इसमें से ही प्रलयंकरी।
सौधा धावल धामों को देती है जला।
लोकलयकरी ज्वाला है इसमें भरी।
इसमें ही दनु वंश दहन रत दब बला।16।

समधिक तेजोमयी महान बिनोदिनी।
सहज सुखों की सखी सरलताओं भरी।
बहु मानव हितकरी ताप अपनोदिनी।
कुटी शान्ति की है अति प्यारी सहचरी।17।