Last modified on 16 मई 2013, at 06:30

संजीवनी / नीरज दइया

Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:30, 16 मई 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मैं मुक्त नहीं हुआ
ओ मेरे पिता!
मैंने दी तुम्हें अग्नि
और राख हुए तुम
तुम्हें गंगा-प्रवाहित कर के भी
मैं मुक्त नहीं हुआ
ओ मेरे पिता!

नहीं रखी राख
नहीं रखी हड्डियां
नहीं बैठा रहा शमशान में
संजीवनी?
गंगा-प्रवाह संभावनाओं का अंत नहीं है!

मेरे भीतर भी
बहती है गंगा एक
और तुम्हारे भी
मैंने तुमको पाया
अपने भीतर
मैं मुक्त नहीं हुआ.....
मैं मुक्त हो भी नहीं सकता
ओ मेरे पिता!