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राग रंजित गगन / ‘हरिऔध’

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तमो मयी यामिनी तिमिर हो चला तिरोहित।
काल जलधि में मग्न हुआ तारक चय बोहित।
ककुभ कालिमाटली उलूक समूह लुकाने।
कुमुद बन्धु छबि हीन हुई कैरव सकुचाने।
बोले तम चुर निचय हुआ खग कुल कलरव रत।
विकसे बिपुल सरोज विनोदित हुआ मधु व्रत।
सुन्दर बहा समीर रुचिर शीतलता कोले।
शाखाएँ हो गईं चारु तरु पल्लव डोले।
हुए सरित सर विपुल विमल तज श्यामल छाया।
मोती जैसा ओप अमल जल में भी आया।
हुई लताएँ ललित बेलियों पर छबि फैली।
बनी अवनि कमनीय फेंक कर चादर मैली।
तज आलस आँखें खोलिए लगा लोकहित से लगन।
अनुराग सहित अवलोकिए अरुण-राग रंजित गगन।