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भूमिका / डॉ. दिनेश कुशवाह

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इनका लासानी होना तस्लीम किया जाये

मौलाना हारून अना क़ासमी एक नौजवान हैं । वे पूरे मौलाना हैं पर इश्क़ ही उनका दीन और ईमान है । वे तरक़्क़ी पसंद जमात के चहेते हैं । वे साझी भाषा और संस्कृति के शायर हैं । वे गृहस्थ वृत्ति के फक्कड़ आदमी हैं । हाज़िर जवाबी और स्पष्टवादिता उनकी पहचान है । वे मिलनसार तबियत के संजीदा इंसान हैं । वे राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं हैं पर राजनैतिक सोच के धनी हैं । खैर वो चाहे हों जैस, पर एक लाजवाब शायर हैं ।

‘अना’ का़समी पर लिखते हुए आलोचक से जिस तटस्थता की अपेक्षा की जानी चाहिये उसका दावा मैं नहीं करता । यह उनकी शायरी पर एक नज़र डालने का विनम्र प्रयास भर है । उन पर लिखते हुए मुझे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का एक शेर बार-बार याद आ रहा है -
वो तो वो है तुम्हें हो जायेगी उल्फ़त मुझसे
इक नज़र तुम मेरा महबूबे-नज़र तो देखो

‘अना’ क़ासमी की शायरी में ध्वन्यात्मक व्यंजना, आत्मीय रागात्मकता और बदलाव की बेचैनी मिलती है, उस पर एक नज़र डालते ही एक महबूब शायर नज़र आने लगता है । सरल और सहज व्यक्तित्व के धनी होते हुए भी उनका गाम्भीर्य सम्मोहित करता है । वे जीवन और सृजन को एक जैसा जीते हैं । उनकी शायरी में समाज, इंक़लाब तथा गंगा-जमुनी तहज़ीब की जो ऊष्मा मिलती है वह प्रशंसनीय है । अक्सर वे चिंतन की मुद्रा में दिखाई देते हैं -
मैं सोचता हूं कभी दिल की आहटें सुन कर
ये घाव हैं कि महकते गुलाब हैं क्या हैं ?

खिरद का बोझ जो नाज़िल हुआ है इंसाँ पर
इनायतें हैं खुदा की, अ़ज़ाब हैं, क्या हैं ?

मोहब्बतों और नफ़रतों, विश्वास और अविश्वास के सायों ने उनकी शाायरी में उन ख़यालों को उभारा है जो इंसानियत के लिए बेहद ज़रूरी है । आसान लफ़्ज़ों का सहारा लेकर अपनी शायरी में वे जिस तरह की बड़ी बात कह देते हैं , वह क़ाबिले-तारीफ़ है । उनकी शायरी में विचार अपना घर खुद-बखुद बना लेते हैं । ‘अना’ अपनी ग़ज़लों में सीधी-सच्ची, दिल में उतर जाने वाली बात कहते हैं । बोलचाल की भाषा में अपनी तरह की ग़ज़लें कहने का उनका हुनर उन्हें चलताऊ भीड़ से अलग करता है । कभी कभी तो उनके कहन पर हैरत होती है और साधुवाद देने का मन करता है । उनके लहजे की सादगी और ज़बान की सफाई ने हिन्दी-उर्दू को गंगा-जमुना की तरह मिला दिया है ।

हमारे पुरखों की ये हवेली अजीब क़ब्रों सी हो गयी है
थे मेरे हिस्से में चार कमरे जो आठ बेटों में बट गये हैं

सबसे अच्छी बात ये है कि ‘अना’ अपने किसी समकालीन शायर से प्रभावित नहीं हैं । वे अपने पुरखों से सीखते हैं और उन्हें चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं । परम्परा और प्रगति के साथ वे
आधुनिक बोध के शायर हैं । ‘अना’ की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे आज के दैनिक जीवन को शेरो-अदब का विषय बनाते हैं । उनका लोक से जुड़ाव इस क़दर गहरा है कि वे सड़क चलते मुहावरों को शेरों में चस्पा करते हैं तो लगता है मानो वे इसी के लिए बने थे -

उसको नम्बर दे के मेरी और उलझन बढ़ गयी
फोन की घंटी बजी और दिल की धड़कन बढ़ गयी

ये कैसी हाँ हूँ लगा रखी है सुनो अब अपना ये फोन रख दो
तुम्हें गवारा अगर नहीं है ज़बाँ हिला कर जवाब देना

इस ही चक्कर में कई काम बिगड़ जाते हैं
याद आते हो कभी काम के दौरान बहुत

‘अना’ वक़्त की रफ़्तार से वाकिफ़ हैं उन्हें समझाने की ज़रूरत नहीं है। वे जानते हैं कि लुत्फ़ क्या है और सितम क्या है ? सच का प्रयोग शायरी में जोखिम का काम है पर कथ्य, संवेदना, सहजता और ज़बान के रसीलेपन ने उनके अशआर को मोती बना दिया है, जो दूर से ही चमकते हैं । कभी देश के उपराष्ट्रपति जनाब मुहम्मद हिदायतउल्ला ने कहा था “सुख़न की असनाफ़ में जो ग़ज़ल का ख़ास मुक़ाम है
उसके बारे में ये कहना बेजा नहीं कि जब तक हरीमे हुस्न के आदाब और इश्क़ के नशैबो-फ़राज़ का
इरफ़ान हासिल न हो, ज़िन्दगी के दाखिली और खारिजी पहलुओं का मुशाहिदा न हो, उस वक़्त तक ग़ज़ल को उसके तमाम अनासिर के साथ कहना नामुमकिन है” । बात सौ फीसदी सही है । यहाँ मौलाना हारून अना क़ासमी के बारे में जनाब नूह नारवी का ये शेर बहुत मौजू है -

जो दिल-विल को लेने का ढब जानते हैं
वो तरकीब-वरकीब सब जानते हैं

पता नहीं कभी किसी शहनाजे़ लालारूख़ ने बढकर ‘अना’ साहिब का हाथ थामा कि नहीं,हो सकता है कि उनके इन शेरों में कुछ सच्चाई है या नहीं
इक साहिरा ने मोम से पत्थर किया जिसे
वो क़िस्सा-ए-लतीफ़ मिरी दास्तां से था

दश्त में मिल तो गई एक परी अब देखो
वो मुझे लेके उड़े या मुझे पत्थर कर दे

 पर अगर ग़ज़ल महबूब से बातचीत का नाम है तो ‘अना’ की बहुत सारी ग़ज़लें क़ाबिले-ग़ौर हैं । इसमें उन्हें विशेष योग्यता हासिल है -

बचा ही क्या है हयात में अब सुनहरे दिन तो निपट गये हैं
यही ठिकाने के चार दिन थे सो तेरी हाँ हूँ में कट गये हैं

ये हुस्न वालों का खेल है या मज़ाक समझा है आशिक़ी को
कभी इशारों में डांट देना, कभी बुलाकर गुलाब देना

इक-इक अदा में वो ही बहर वो ही बांकपन
पढ़ता हूं तुझको मीर के दीवान की तरह

लगता है अना क़ासमी की भिड़न्त सौदा और अकबर इलाहाबादी से होने लगी है । अना क़ासमी बुनियादी तौर पर ग़ज़ल के शायर हैं । लेकिन उनकी शायराना फ़िक्र नंे कई काव्य रूपों मसलन क़ता, नज़्म, रूबाई आदि का भी सृजन किया है और वह भी निर्दोष । अभी नौजवान हैं, खूने दिल में अंगुलियाँ डूबोकर लिखते हैं । मेरी शुभकामना है कि इस शायर को जिसे इस तरह का ज़ेहन और जिगर मिला है वह इन्हें इस महादेश ही नहीं धरती के कोने-कोने तक ले जाये । आमीन !

हैं और भी दुनिया में ‘अना’ जैसे सुख़नवर
अब शहरे-सुखन आपका दिल्ली ही नहीं है ।
 
डॉ. दिनेश कुशवाह
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
ए0पी0एस0यूनिवर्सिटी
रीवा (म0प्र)
मोबा. नं.-09425847022