विश्व शान्तिक द्रौपदी केर चीर
खिंचने जा रहल अछि आन्हरक संतान।
(दृश्य केर वीभत्सता केर छैक ने किछु भान)
कौरवी-लिप्सा निरन्तर आइ
बढ़ले जा रहल दिन-राति।
वृद्ध सभ आचार्य केर प्रज्ञा गेलन्हि हेराए,
मूक, नीरव, क्षुब्ध आ असहाय !
किन्तु !
किन्तु सागन मध्य उठले जा रहल भुकम्प
जन-मनक पुनि ‘कृष्ण’ अप्पन
ताकि रहला शंख।