Last modified on 4 जून 2013, at 12:23

गाछ बहुत छल / जीवकान्त

सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:23, 4 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जीवकान्त |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} {{KKCatMaithiliRach...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

 
गाछ बहुत छल, हम ने बिताओल राति एकहु टा गाछ तर

बहुत डेराइत रही मेघसँ, मेघक उमड़ल ज्वारिसँ
मोन ने भीजए, देहक रोइँ बचावी मीठ फुहारसँ
टुटलहबा घर छोड़ि ने सकलहुँ, ककरो कोनो बात पर।।1।।

गाछक तर जे हवा लगइ छइ, से नहि कहियो जानल
घोर अन्हरिया, साफ इजोरियामे नहि डेग बढ़ाओल
जगलो ठोकने रही केबाड़ी, टोलक हाहकार पर।।2।।

पहिला पहरक जाग-बतकही, पछिला पहरक ओंघी
दुपहिरयामे छाहरि, बरखामे लए घूमब घोघी
हम नहि जानल, खजन चिड़ैया राति कटइए डारि पर।।3।।