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पराश्रयी / महाप्रकाश

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घरसँ बाहर नहि निकलैत डी
हठात् अपन अस्तित्वसँ शिकाइत भ’ अबैत अछि
-आ डर लगैत अछि
लोक पूछिए दैत अछि, की करैत छह ?
आत्मीयताक लिफाफसँ निकलल ई प्रश्न
हरियर घास नहि, असंख्य कांटक जंगल होइत अछि
लहूलहुआन अन्हार क्षितिज पर
अपन नांगट रूपकें टोबैत डर लगैत अछि
एकटा अरघनी विशेष छैक; आ ओ हम छी
लोक बेड़ा-पांती, अपन तामस-
मैल कपड़ा जकाँ टांगि
मुक्त भ’ जाइत अछि
कार्यालय केर फाइलमे डूबल पिता कहैत छथि
नहि आब ताकति नहि कि बन्हाएल रही
धैर्य नहि कि जोतल रही, लगातार
आ तों ब्लेड धरिक पाइ मंगैत छह
कहिया धरि हम तोहर लाठी बनल रही
आंखि केर सूतसँ ल’ क’ डांड़ धारि झूकि गेल अछि
आसरा केर तोरा नहि, हमरा अछि जरूरति
मां केर आंखिमे बन्हल कोनो झील
कतोक बेर बदलि लैत अछि करौट
मां आ पिता हमर दू टा ध्रुव थिक
अकस्मात कोनो दिन टूटि जेतैक
हम देखैत छी, फेर
कतोक टुकड़ीमे बँटि क’
कतोक अनिर्दिष्ट दिशमे बहि जाइत छी
अन्हारक चीत्कार
अन्हारेमे दम तोड़ि दैत अछि