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प्रत्याशा / जयशंकर प्रसाद

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मुखपृष्ठ: झरना / जयशंकर प्रसाद


मन्द पवन बह रहा अँधेरी रात हैं।

आज अकेले निर्जन गृह में क्लान्त हो-

स्थित हूँ, प्रत्याशा में मैं तो प्राणहीन।

शिथिल विपंची मिली विरह संगीत से

बजने लगी उदास पहाड़ी रागिनी।

कहते हो-\"उत्कंठा तेरी कपट हैं।\"

नहीं नहीं उस धुँधले तारे को अभी-

आधी खुली हुई खिड़की की राह से

जीवन-धन! मैं देख रहा हूँ सत्य ही ।

दिखलाई पड़ता हैं जो तम-व्योम में,

हिचको मत निस्संग न देख मुझे अभी।

तुमको आते देख, स्वयं हट जायेगे-

वे सब, आओ, मत-संकोच करो यहाँ।

सुलभ हमारा मिलना हैं-कारण यही-

ध्यान हमारा नहीं तुम्हें जो हो रहा।

क्योंकि तुम्हारे हम तो करतलगत रहे

हाँ, हाँ, औरों की भी हो सम्वर्धना।

किन्तु न मेरी करो परीक्षा, प्राणधन!

होड़ लगाओ नहीं, न दो उत्तेजना।

चलने दो मयलानिल की शुचि चाल से।

हृदय हमारा नही हिलाने योग्य हैं।

चन्द्र-किरण-हिम-बिन्दु-मधुर-मकरन्द से

बनी सुधा, रख दी हैं हीरक-पात्र में।

मत छलकाओ इसे, प्रेम परिपूर्ण हैं ।