Last modified on 10 जून 2013, at 06:05

बदली / कविता वाचक्नवी

Kvachaknavee (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:05, 10 जून 2013 का अवतरण (वर्तनी सुधार)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बदली

आज फिर....?
लो, फिर आज
पगली बदली
रोई है आँगन में
बिलख-बिलख
बार-बार
भीगी मिट्टी में गाल रगड़
लस्त-पस्त छितरे बालों से
हथेलियों पर भाल मसल।
कीचड़ के दाग हैं
तड़पते नखों में,
मुट्ठी में बिजलियों की जलन
और अपनी चीत्कार से
कड़कड़ा कर
भाल पटक
सीने में उमड़ी
घोर घटा श्यामल धुँआरी....।
चुपना न चाहता जी
चाहती निज मेटना
तड़पती और बरसती है
वह विवश
सिसक-सिसक
पत्थरों पर---।