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दरख़्त / महेश वर्मा

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यह रात है
और पतझर की नींद में भी
हवा में घूमकर नीचे गिरते पत्ते हैं

यह वृक्ष का सपना नहीं है
उसकी नींद के पत्ते भी गिर रहे हैं अँधेरे में
इस तरह अँधेरे में कि अँधेरे का हिस्सा हैं
पत्ते की शक्ल का एक अँधेरा
बाहर के अँधेरे के भीतर गिर रहा है

अँधेरा कोई वृक्ष है
तो उसके भी पत्ते गिर रहे हैं रात में

रात खुद एक दरख़्त है ।