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निर्वासिता / प्रतिभा सक्सेना

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क्या लिखूँ? लेखनी पूछ रही कवि से,
"मैं लिखूँ अयोध्या से श्री का निर्वासन?
वन-दर्शन के मिस रथ से घोर-वनों में,
एकाकी छोड़ चले आये जब लक्ष्मण?"

"लिख दूँ कि सामने राम नहीं आये,
सब सत्य जानकर भी न मान पाये?
यश की लिप्सा में आगे ही आगे,
पितृत्व, पतित्व, सत्य से भी भागे?"

चुपचाप कर रहे चिन्तन ऋषि-
क्या कहूँ लेखनी से लिख दे!
क्या राजनीति में विहित कि घर-घर की बतें,
सडकों से दूत सुने, आ कानों को भर दें?

वह अर्धपाट की स्वामिनि, जो थी साम्राज्ञी,
जो अंश गर्भ में धारे हो वह सहधर्मिणि,
अधिकार अबाध नृपति ने या पति ने पाया?
जब चाहे झटका दे, ले अपना पिण्ड छुडा?

ना, मै न कर सकूँगा उस सब का आलेखन!
अपनी मति से समझें-बूझें सारे ही जन!
सब कुछ सह जाना बस उसका बस था!
लेखनी, वही कह, साक्षी मैं जिसका!

वन-आश्रम में जब से आई सीता
सम्पूर्ण प्रकृति में नव-चेतना जगी,
अब नया सृजन नव-जीवन लहराया,
इतनी शोभा-श्री पहले कभी न थी!

वनस्थली-

हल्दी-चंदन-कुमकुम अइपन से जैसे, पूरी निसर्ग ने हो मंगल रंगोली,
नीचे धरती पर पीली-अरुण पँखुँरियाँ अंकित करतीं चित्रों में मन की बोली!
तरु की डालों से झरती सूरज-किरणें, अवनी पर रचतीं चल-चित्रों की माया,
हरिताभ तृणों पर हीरक कण-सी द्युतिमय, बिम्बित-प्रतिबिम्बित हैं प्रकाश औ' छाया!

वसन्ती नव-रात्रों की धज कुछ ऐसी, वन में उत्सव के साज सजे कुंजों ने,
फूलों की गन्ध अर्घ्य सी अर्पित होती, उच्चरित मंत्र-ध्वनि अलियों की गुँजों में!
सुलगे पत्तों से धूप-धूम लहराता, नव-रात्रि पर्व में हवन दिशायें करतीं!
फिर नवों दिशाओं से नव-दुर्गायें आ, उस वनस्थली में हो प्रत्यक्ष विचरतीं!

वैदेही आमंत्रित कर कन्याओ को, पग धोकर दधि-मधु, ऋतुफल अर्पित करती,
प्रात: मिष्ठान्न खिलाकर, कन्या-भोजन का आयोजन अति यत्न पूर्वक करती!
"यह स्वाद कहाँ से लाईं मेरी बहना" अति तृप्त मुदित होकर कन्यायें कहतीं,
"क्या अमृत अँगुलियों से अविरल झरता है, जिसको पा जिह्वा हरदम रसमय रहती!"
राजा दशऱथ भोजन पर हँस कहते थे, "मिथिला के सारे स्वाद अयोध्या आये,
पहले वे व्यंजन मेरे आगे धर दो, जो पुत्र-वधू ने अपने हाथ बनाये!"

कौशल्या-माँ भी, हो प्रसन्न कहती थीं, "वैदेही के हाथों का स्वाद निराला!
वह छू दे तो रूखा-सूखा भोजन भी, हो जाता रुचिकर स्वादपूर्ण रसवाला!"
पहिले गउओँ को ग्रास, श्वान को अंतिम, वन-पक्षी नित जल-अन्न तृप्ति पा जाते!
तुलसी को जल, सूरज को अंजलि-मुद्रा, छायाँकन जैसे भू-तल पर सज जाते!