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स्मृतियाँ / प्रतिभा सक्सेना

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जब अपने में डूबे-डूबे कहते थे,
मुझको अब प्रवचन सी लगतीं वे बातें,
वे बहुत तर्क-संगत, तटस्थ रहते थे,
अति सहज भाव से कितना कुछ कह जाते!

सचमुच वे पंडित, पूर्ण ज्ञान-गौरव से,
तेजस्वी थे, गाम्भीर्य-युक्त मुख-मण्डल,
सुगठित थी लम्बी देह शक्ति-परिपूरित,
परिपक्व अवस्था, धारे हुये अतुल बल!

जब भी आये तो मेरी माँ को सँग ले,
साक्षी अशोक-वन, वायु अग्नि जल, अंबर,
कोई कुछ कहे भले कोई कुछ समझे,
सबसे बढ़कर साक्षी है मेरा अंतर!

दशमुख को देख न जाने तब भी मुझको,
बीतेदिन आते याद जनक की आती,
उस विवश-निराश दृष्टि की स्मृति करके
वैदेही की आँखें जल से भर आतीं!

मयकन्या के अनुरूप दशानन ही है, विस्मित सीता सोचा करती थी मन में,
मैं उन्हें देख कर त्रस्त नहीं होती थी, पड़ जाती थी जाने कैसी उलझन में!

वे मेरे पिता और वे मेरी माता, हिय उमग उठा, नयनो में जल भर आया,
कितने अन्तर्विरोध, कैसी स्थितियां, कितनी अशान्ति ले जन्मी मेरी काया!

इस रक्त, माँस, मज्जा में समा रहे जो, यह देह सिरजनेवाले दोनों प्राणी,
उन रक्ष और मय वंशों के गुण बुनकर, कैसी विचित्र रच डाली राम-कहानी!

माँ इधर तरसती रही, उधर वैदेही बन कर भी मै असहज सी ही रह जाती,
सब मेंर ह कर भी रही नितान्त अकेली, उन भोगों में अनुरक्त नहीं हो पाती!

पितृ-मातृ-मरण पर भी न रो सकी खुल कर, जम गये उपल बन सारे आँसू उर पर,
पुत्रों को पाकर हर्ष-विभोर नहीं थी, काँटे-सा कुछ चुभता ही रहा निरन्तर!

आखिरी दौर में युद्ध,
और आये थे अंतिम बार तात। ,
लगते थे बहुत अकेले, चुपचुप से उदास!
बस कुछ क्षण, कितना विचलित मन, धुँधलाये से वाष्पित लोचन,

आगे बढ़ सिर पर हाथ धरा, देखते निष्पलक नयन तरल!
फिर कानों में आये वे स्वर, जिनका उद्गम था कहीं अतल
"तुम नहीं मृत्यु का हेतु सभी को भ्रम था,
आपस की कटुता अविश्वास का, क्रम था,
दो संस्कृतियों में बैर-भाव के चलते,
मेरे असफल प्रयास का ही व्यतिक्रम था!"

क्या कहा और कुछ, भान न कोई मुझको
अंतस् में कुछ चुभता है उमड़-घुमड़ के

मुझको भविष्य की सुखद कामनायें दे
वे पलटे, चले गये, बस चले गये वे!