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अयोध्या में / प्रतिभा सक्सेना

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अब चलो, अयोध्या चलें जहाँ होना है
इस अश्वमेध का विधिवत् अभी समापन,
दिशि-दिशि के राजा हुए वहीं एकत्रित,
करने को राम राज का शुभ अभिनन्दन!

जनता में बड़ा उछाह बड़ी हलचल है,
पुर में कोलाहल उत्सव और उमंगें!
घर-घर से निकले चले आ रहे पुरजन
सागर में ज्यों उठ रहीं अपार तरंगें!

साधारण जन की स्मृति अल्प ही होती,
कब जन्में राजकुँवर क्या जाने कोई,
राजा, फिर राजा राम!करें जो कुछ भी,
सब उचित यहाँ आपत्ति करे क्यों कोई?

मच गई धूम पुर में, दो औरस पुत्र राम सँग ले आए,
गुरु के समीप शिक्षा पाकर दोनों समवय अब घर आए!
सुन्दर किशोर वे यमल पुत्र, गुणरूप युक्त अति मनभाए,
सब उमड़ पड़े यज्ञस्थल पर, "आए लव आए कुश आए!"

कुश,लव धारे राजसी वेश, यज्ञस्थल पर पहुँचे जाकर
वेदी पर बैठी वैदेही पर दृष्टि तुरत अटकी जाकर!
माता, तुम यहाँ विराज रहीं, हम फिरे ढूंढते वन-वन में,
दौड़े लव दौड़े कुश दौड़े सीता की ओर उसी क्षण में!

आ गया वेग तन में दूना, उत्साह भरे मन भी दूने,
"माँ ओ माँ, जननी" प्रेम विवश सीता के चरणों को छूने,
कुश के हाथों वह स्वर्ण-मूर्ति टेड़ी होकर गिर गई वहीं,
दोनों की क्षुब्ध दृष्टि मुड़कर तब रामचन्द्र की ओर गई!

"यह हृदयहीन उपहास, प्रवंचन, यह कैसा कुत्सित नाटक?"
स्तब्ध सभी, निस्तब्ध सभा कर गय कि कोई हो त्राटक!
भर्र्त्स्ना, हताशा व्यथा, क्रोध, संदेह घृणा औ अविश्वास
अनगिनती चुभते प्रश्न दृष्टियों में था कितना विषम त्रास!

झुक गई राम की दृष्टि, श्याम से कृष्ण हो उठा मुख मण्डल
पुत्रों की वह आहत मुद्रा, मथ हृदय रही करती विह्वल
ले लो सारे राजसी भोग, सिंहासन सुख-साधन अपने,
साधनहीना, जीवन के कष्ट झेलती सीता-माँ ला दो,
व्यक्तित्व हमारे रचने को,
जिसने जीवन भर ताप सहा
निर्जीवन मूर्ति तुम्हीं रक्खो,
जीवनमय जननी लौटा दो!

अवसाद-

 है अर्ध निशा नभ में तारे जगते हैं, अष्टमी-कृष्ण है चाँद किए मुँह टेढ़ा,
नभ-मण्डल में तारे बुद्बुद् से तिरते कुछ बादल चलते जैसे बाँधे बेड़ा।
चुपचाप खड़े हैं वृक्ष तीर, वन उपवन, श्यामा रजनी ने सब पर छाया छाई,
जल के प्रवाह में देखो हिलती-डुलती तट के भवनो की श्याम वर्ण परछाईं!
तिरछा चन्दा, लहराते सरिता-जल में, क्यों जान बूझ अपना मुख चिढ़ा रहा है?
तुम राम, वही हो चंद्रवंश जामाता? वह पूछ रहा, मुसकाकर बिरा रहा है!
अब अवधपुरी के राजमहल में लगता जैसे कुछ सूना है जैसे कुछ खाली,
सन्नाटा सा छाया रहता है हरदम, श्री-हीन हो गई वह सारी हरियाली!
सोया है पुर चुपचाप गहन निद्रा में बातियाँ दीप की बढ़ी हुई है सारी,
अपने कक्षों में शान्त भाव से सोए, मन की द्विविधायें मौन पड़ीं बेचारी!

रजनी ने फैला तारों वाला आंचल, जादू-सा डाल दिया जैसे नगरी पर,
चहुँ ओर मौन छाया-प्रकाश का नर्तन निद्रा में लीन अयोध्या के नारी-नर!
प्रासादों में दीपक की लौ अति मद्धिम, भौतिक को भी अधिभौतिक बना रही-सी
सपनों सा माया जाल डाल धरती पर छायाओं को इंगित पर नचा रही सी!
सरयू के जल में मन्द लहर की गति भी, नभ के तारे हिलते-डुलते प्रतिबिम्बित
कुछ प्रकट और कुछ छिपा चाँद टेढ़ा-सा, सब कुछ इस समय हुआ जैसे अभिमंत्रित!
इस राज-भवन पर ध्वजा काँपती हिलती, सुनसान पड़ा है कनक-भवन अँधियारा,
चाँदनी उतर कर फूँक रही कुछ टोना, है इन्द्र-जाल में दृष्यमान जग सारा!
सच है या सपना, बार-बार भ्रम होता, चेतना विभ्रमित पड़ी अवश-सी होकर!
अस्पष्ट सभी कुछ उलझा सा, अनजाना, सब रूप जगत फैला छाया-सा बनकर!

लगती हैं दशो दिशाएँ सम्मोहित सी,ऊपर टिम-टिम तारों का मण्डप ताने,
पक्षी नीड़ों में छिपे, माँद में वनचर निद्रा में कीट-पतंग पड़े अनजाने!
कौशल्या-माँ का कक्ष बहुत सूना है, दुस्सह दुख देती वधू-पौत्र की चर्चा,
रीतता जा रहा जीवन-घट चुप-चुप ही, मन शान्तिहीन क्या करे इष्ट की अर्चा

दिन भर के बाद राम आकर बैठे हैं
आवरण-रहित उस रिक्त काष्ठ चौकी पर,
अब नहीं कहीं जाने को मन करता है,
लगता कि बोझ भारी रक्खा है उर पर!

चुपचाप प़ड़ी इस अवधपुरी में लगता
जैसे सब कुछ श्रीहीन और सब खाली;
मन मार खडे हैं वृक्ष तीर पर वन में,
सब पर उदासियों ने चादर सी डाली!

फिर रात्रि सभी अपने कक्षों में निद्रित
संगीतों के सारे स्वर मौन हुए हैं,
पर एक कक्ष में मन्द पडी सी लौ से,
अपने ही दन्डों पर जल रहे दिये हैं!

सज्जा से हीन कक्ष बस पट उड़के हैं,
पृथ्वी पर लगी हुई है तृण की शैया,
यह कौन अकेला बैठा जाग रहा है,
अवसाद छा रहा मुख पर जाने कैसा!

कैसी अतृप्ति जड-चेतन में व्यापी है,
सारे ही रंग उडे- से लगते फीके,
इन महलों में भी रंग तृप्ति और सुख था,
लेकिन उस सब को देखे अब युग बीते!

सोचते राम मैं ही पीड़ा का कारण,
सुख-शान्ति किसी को दे न सका जीवन में,
सामना नहीं कर पाता पुत्रों का भी,
कितना विक्षोभ भरा है उनके मन में!

पूछते, धर्म जड़ प्रतिमा से सध जाता,
पत्नी का जीवन यहाँ व्यर्थ हो जाता?
मता के लिये तात, त्यागा सिंहासन,
हम राजा बने, त्याग कर अपनी माता?

कितनी हताश लगतीं कौशल्या-माता
उनके सम्मुख यह शीश नहीं उठ पाता,
निर्दोष बन्धु लक्ष्मण भी छोड़ गया अब,
जो छायावत् था हरदम साथ निभाता!

कैसे निष्कृति हो?
सब मेरे ही कारण,
राज्याधिकार क्यों किया था ही धारण!

बज रहे घुँघरुओं के झुन-झुन से मृदु स्वर,
राम ने दृष्टि उठाई देखा ऊपर!
कुछ दिन पहले तो गिरते थे तिनके,
अब नन्हें शावक हैं गौरैयों के,
उन खुली हुई शिशु चों चों में चुग्गा दे,
दाना लेने उड़ गया चिड़ा फिर से!

चोंच भर पानी लाती गौरैया,
इस सुखद नीड़ में शिशुओ की शैया!
पशु पक्षि जगत भी निज संततियों का,
मिल-जुल कर संरक्षण पोषण-करता!

उपकृत विदेह बोले थे, "प्रिय जामाता,
तर गईँ आज मेरी कितनी ही पीढी,
मेरी यह पुत्री ले कर के आई है,
पृथ्वी से लेकर स्वर्ग तलक की सीढी!"
फिर बिदा काल में बोले थे आकर,
"मैं धन्य हो गया राम, तुम्हें पाकर,
अन्यथा न कुछ अपने मन में रखना,
तुम पति हो राम, सिया की पत रखना!
यश-अपयश, सुख-दुख, वन हो या कि भवन,
अब साथ निभाना होगा आजीवन!"

भाई सम्मुख हो बात न कर पाते,
वधुओं के सम्मुख राम नहीं जाते,
कौशल्या चुप-चुप ही रहती आईँ,
लक्षमण-जननी कुछ कभी न कह पाईं ;
मंथरा देख, अनदेखी कर जाती
कैकयी भवन से कहीं नहीं जाती!
पुरवासी विस्मित देख उन्हें सहसा,
हट जाते हैं संभ्रम से शीष झुका!
इस ओर बड़ा सन्नाटा-सा रहता,
पथ पर कोई भी बात नहीं करता!

देखते राम सब, किन्तु करें अब क्या,
जो बीत गया वह कैसे लौटेगा!
लेकर मुँदरी वह राम-नाम अंकित
कुछ पड़ते रहते राम लगाकर चित!

लगती थीं विगत स्मृतियाँ फिर जगने,
सीता का प्रिय मुख दिख जाता उसमें।
अंतर का वेग वाष्प बन कर उठता,
जाने कैसे फिर समय बीत जाता!