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उपसंहार / प्रतिभा सक्सेना

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देखती सरस्वति, वाल्मीकि जो विगत-काम,
इस मोह-प्रहर में खो बैठे हैं सभी भान!
निर्मला स्वरा, ऋषि की हरने को दुष्चिन्ता,
दुख-शमन हेतु आवाहन करती निद्रा का

हे परम व्योम दुहिते, हे मायामयि निद्रे,
निज रहस उदर में स्पंदनयुत ब्रह्माण्ड धरे,
ऋषि के बोधों पर बैठा दो अपना पहरा,
संवेदों पर लहरा दो श्यामल-पट गहरा!
तापित मस्तक निज तुहिन करों से सहलाकर,
विश्रान्त करो अब स्नेहांचल में बहला कर
अपनी अमाप गहराई में कर लो विलीन,
शिशुवत् विमुक्त दुश्चिन्ता से, हों आत्मलीन!'

वह तरु का तना टिका है जिस पर आच्छादन,
बूढ़े वाल्मीकि, टिकाये सिर बैठे हैं चुप, मूँद नयन।
कर रही दग्ध उर में धधकी जो चिन्तानल,
कितनी रातें अनसोई, विह्वल औ व्याकुल!
ऋषि अपने में ही डूबे, होकर बाह्य जगत से उदासीन,
आश्रम-वासी जन समझ रहे साधना-समाधिलीन!

'ऋषि धन्य, छन्द की प्राप्ति, सफल हो गई स्वयं,
सब मकड़-जाल आच्छादन को कर निरावरण,
ज्योतिर्मय कर सत्याभासों का गहन कुहुर
निर्मल विवेक जागे, कि दूर आरोपित भ्रम!
संपूर्ण कथा, सब उचित और अनुचित की इति
अपना ही समाधान अब करे लोक की मति!
सब बीत गया, हो शमित दाह मन का अकाम,
वाणी हो गई मौन, कवि-ऋषि अब लो विराम!