Last modified on 17 जून 2013, at 08:32

कैसी चली है अब के हवा तेरे शहर में / खातिर ग़ज़नवी

सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:32, 17 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=खातिर ग़ज़नवी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal‎}}‎ <po...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कैसी चली है अब के हवा तेरे शहर में
बंदे भी हो गए हैं ख़ुदा तेरे शहर में

तू और हरीम-ए-नाज़ में पा-बस्ता-ए-हिना
हम फिर रहे हैं आबला-पा तेरे शहर में

क्या जाने क्या हुआ के परेशान हो गई
इक लहज़ा रूक गई थी सबा तेरे शहर में

कुछ दुश्मनी का ढब है न अब दोस्ती का तौर
दोनों का एक रंग हुआ तेरे शहर में

शायद तुझे ख़बर हो के ‘ख़ातिर’ था अजनबी
लोगों ने उस को लूट लिया तेरे शहर में