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श्मशान-शृंगार / आशुतोष दुबे

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क्या तुमने कभी
किसी सब्ज़ दरख़्त पर
गिरती हुई बिजली देखी है ?

नींद में होठों पर
भटक आई मुस्कान
भ्रम है
भ्रम है दस्तक
रात तीसरे पहर अचानक
मन पर

ये कौन सी आवाज़ें हैं
जो शामिल हो गई हैं हमारी आवाज़ों में
ये कौन से प्रेत हैं
जो हमारी आवाज़ों में
अपने फ़रमान जारी कर रहे हैं

नहीं, संयोग नही यह
वियोग भी नही
यह श्मशान-शृंगार है
जिसमे विरह शोभा में दीप्त
एक शव दूसरे की प्रतीक्षा में
कातर होता है

देखो
एक पेड़ जल रहा है सामने

वह देखो
उसके नीचे
बारिश से बचने के लिए खड़े हुए हम
राख हो रहे हैं