कर चुका हूँ आज अज़्म-ए-आखिरी
शाम से पहले ही कर देता था मै।
चाट कर दीवार को नोक-ए-ज़बाँ से ना-तवाँ
सुब्ह होने तक वो हो जाती थी दोबारा बुलंद
रात को जब घर का रूख़ करता था मैं
तीरगी को देखता था सिर-निगूँ
मुँह बसोरे रह-गुज़ारों से लिपटते सोग-वार
घर पहुँचता था मैं इंसानों से उकताया हुआ
मेरा अज़्म-ए-आख़िरी ये है के मैं
कूद जाऊँ सातवी मंज़िल से आज !
आज मैंने पा लिया ज़िंदगी को बे-नक़ाब
आता जाता था बड़ी मुद्दत से मैं
एक इश्वा-साज़ ओ हर्ज़ा-कार महबूबा के पास
उस के तख़्त-ए-ख़्वाब के नीचे मगर
आज मैंने देख पाया है लहू
ताज़ा ओ रख़्शां लहू
बू-ए-मय में बू-ए-खूँ उलझी हुई !
वो अभी तक ख़्वाब-गह में लौट कर आई नहीं
और मैं कर भी चुका हूँ अपना अज़्म-ए-आख़िरी !
जी में आई है लगा दूँ एक बे-बाकाना जस्त
उस दरीचे में से जो
झाँकता है सातवीं मंज़िल से कु-ए-बाम को !
शाम से पहले ही कर देता था मैं
चाट कर दीवार को नोक-ए-ज़बाँ से ना-तावाँ
सुब्ह होने तक वो हो जाती थी दोबरा बुलंद
आज तो आखिर हम-आगोश-ए-ज़मीं हो जाएगी !